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जुलाई २०१७ की रचनाएँ

मुक्तक ******* कहीं कोई मूल भूल हो गई है शायद अबतो जो भी हो रहा..गलत ही गलत अबतो ग़लतियाँ ही सही लगने लगी हैं ग़लतफ़हमी ही हमारी जिंदगी है शायद -अरुण मुक्तक ****** सारा आकाश सारी धरा ही सामने धरी है अपने आँगन के परे जा न सकी आँखें मेरी इशारे सृष्टि के हर आदमी की ओर करते ‘वे’ मगर अपने ही मतलबमें अटकती सोचें मेरी -अरुण मुक्तक ****** न साकार न निराकार से परिचय है अस्तित्व का अस्मिता को तो साकार ही साकार नज़र आता है अस्मिता ने जो पहन रखा है अहं का ठोस आकार अब दो शब्दों का अंतराल भी शब्द बन जाता है -अरुण मुक्तक ******* छत और चार दिवारी को भले ही  कोई एक पकड लेवे बीच की जगह ख़ाली.......... किसी एक की नही.. सबकी होवे चेतना-आकाश में उड़ते पंछियों को पकड़नेवाले कभी भी आकाश को नही पकड पाते क्योंकि वह सबका होवे -अरुण यादों का इकट्ठापन ***************** अपनी यादों का इकट्ठापन ही तो है.... हर एक का अपना मन इन्ही इकट्ठा यादों से खेलता रहता है.. हर एक का अपना मन इसतरह हर कोई अपने बीते का ही रूप है जिसपर वर्तमान की धूप होते हुए भी वह विगत के तमस विचरकर किस