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अप्रैल २०१७ की रचनाएँ

अप्रैल २०१७ की रचनाएँ ----------------------------- ‘पागलपन’  ********* हाँ, यह ऐसा पागलपन है जो हमेशा सवार है सरपर, पर, इस ‘पागलपन’ को  उभारती रहती जो बत्तियाँ...   वो तो जलबुझ रही हैं  सर के भीतर उन बत्तियों के जलतेबुझतेपन पर  ध्यान आ टिके तो ‘पागलपन’ हटे... ध्यान के अभाव में ही यह पागलपन घटे ऐसा यह ‘पागलपन’  इस दुनिया में  जीने के लिए ज़रूरी है और इस ‘पागलपन’ को ही, सयानपन समझ लेना आदमी की मजबूरी है -अरुण मुक्तक ****** आँखों में भरी हो पहले से जो सोच वह सोचै देख रही दुनिया सीधे उतरे जो आँखों में तस्वीर वह तस्वीर न देखी जाए है  -अरुण  बच निकलने के लिए ******************* आसमां में है चमकता सूरज  है धूप ही धूप चहुँओर  फिर भी  आदमी को तो मिल ही जाती हैं परछाईंयां  बच निकलने के लिए  बोध के सागर में ही डूबी हुई है सकल की अंतर-आत्मा   फिर भी मिल गया है आदमी को मनबुद्धि का सहारा.... बोध से  बच निकलने के लिए -अरुण कोई नही है देखनेवाला ******************** बस, देखना ही देखना तो है यहाँ  कोई नह