14 0ctober

सच्ची बात
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गर नदी होती नहीं... फिर तट न होते
दृश्य - दर्शक,...दृष्टि के ही दो किनारे
अरुण
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'अंतिम यात्रा'
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क्यों न शुरू की मेरी 'अंतिम यात्रा' की तैयारी... उसी दिन
जिस दिन......... मैं इस धरती पर आया
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उसी दिन से तो शुरू कर दिया आपने गला घोटना मेरी कुदरती आजादी का..
उसी दिन तो शुरू किया आपने.....मेरे निरंग श्वांसों में.....
अपनी जूठी साँस भरकर...उसमें अपना जहर उतारना......
उसी दिन से तो सही माने में मेरी क़ैद शुरू हुई,
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आपके विचारों, विश्वासों और आस्थाओं ने मेरी सोच को रंगते हुए .......
मुझे बड़ा किया...मुझे पाला पोसा बढ़ाया....आप जैसे 'अच्छे-भलों' के बीच में लाया....
आपने जिसे अच्छा समझा वैसा ही जीना सिखाया.....पर कभी न समझा कि......
आप फूल को ......उसकी अपनी ज़िंदगी नही,  समाज को जो भाए , ऐसी मौत दे रहे हो,
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अब तो मै बस ....सामाजिक प्रतिष्ठा और उपयोग का सामान बनकर रह गया हूँ ...
अब पहुँचने जा रहा हूँ अंतिम छोर पर.......
उस राह के...जिसका आरम्भ ही न हो पाया कभी ....
अरुण
साँस
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जीने जिलाने की ही दुनिया हो तो
बस,  हलकी सी  साँस बहुत है

दुनिया मिलने मिलाने की हो तो फिर
हर साँस के साथ..
पास और दूर वाले रिश्तों की निर्भरता जुड जाती है.....

पाने-खोने, कमाने-गँवाने वाली दुनिया में
जी रही साँसों से
हिसाबों की भारी भारी तख़्तियाँ
लटक कर साँसों को बोझिल बना देतीं हैं

ऐसे बोझिल साँस वालों को ही ' आलोम विलोम' वाले
आसानी से अपना ग्राहक बना लेते हैं
पर कुछ नही होता...

कोई नही बताता ऐंसों को कि
अपनी साँसों से बस
रिश्तों की निर्भरता हटाओ
हिसाबी तख़्तियाँ उतार लो...
साँस फिर से हलकी होकर बहने लगेगी...
एक मधुर..मृदुल.. पवन-झोंके की तरह
- अरुण

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