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Showing posts from 2015

१० दिसम्बर

एक शेर ******** चित्र बनते दिख रहे हों आइने में... ......वे नही बनते न होते हैं वहाँ खोपड़ी में सिर्फ उर्जा का बहाव... मन विचारों की महज़ छाया वहाँ -अरुण एक शेर ******** जानने की कोशिशें..... नाकाम हैं सुनके पढ़के बस बने है जानकारी -अरुण सत्यदर्शन *********** हम सब असत्य या झूठ ही हैं... हमारे इस सार्वजनिक झूठ के झूठत्व का स्पष्ट दर्शन ही है सत्यदर्शन -अरुण एक शेर ********* हर किसी के ग़म-ख़ुशी का है अलग तप्सील दिल में सबके रंग उसका .......एक ही जैसा अरुण एक शेर ********* आतंकियों के बम मिसाइल रूस की हो धर्म ऊर्जाका ....अधार्मिक बन गया  है अरुण एक शेर ******** उभर आते  हैं वेद सारे.....कोरे काग़ज़ पर चितका कोरापन ही..... उनको पढ़ पाता है अरुण एक शेर ******** कहने को कुछ न होता तो न होती भाषा पाने को कुछ न होता तो न होती आशा अरुण एक शेर ********** सतह पर गिरती-ओ- उठती है लहर है नतीजा भी वजह भी.... ये लहर अरुण एक शेर ******** लाख पोछो या के झाड़ो तुम उसे... दीवारे पत्थर है न कुछभी दिख सके उसपारका अरुण एक शेर ********* जो है नही

१ दिसम्बर

एक शेर ******** पल पल बदलती है.. ये कायनात....अपना पैतरा मेरी मन दौड़ इस बदलाव से रखती मुझे गाफ़िल अरुण इसपर ग़ौर करें *************** लगाव भी है अलगाव भी है एक ही वक़्त अभाव भी है और भाव भी है एक ही वक़्त मगर इंसान को.... इसका न कोई होश है वह अच्छा और बीमार भी है एक ही वक़्त अरुण एक शेर ******** यादों को ही भूत कहो........कहो भूत को याद याद बनी है जीवन सबका.. भूत जगत अवतार अरुण एक शेर ********* हवा पे उड़ रहे बादल को.... कुछ भी है नहीं कहना मगर उसमें भी अपने मन मुताबिक़ चित्र देखे आदमी अरुण एक शेर ********* साँस के चलने से पहले जो जैसा था वैसी ही है दुनिया साँस के चलते भी अरुण मुहब्बत क्या है? **************** मुहब्बत ऐसी नजदीकी का नाम है जिसमें न दूरी है, न मजबूरी है, न मिलकियत है और न है कोई नीयत...   जिसमें दो नहीं होते और न ही गिना जा सके ऐसा कोई एक ही होता है... मुहब्बत में न कोई लगाव है और न ही कोई अलगाव, न कोई उलझाव और न ही है कोई सुलझाव केवल होता है भाव ही भाव -अरुण   दो बातें ******** मुहब्बत ऐसी धड़कन है जो समझाई नहीं

1 November

प्रेममय है ज़िंदगी फिर... *********************** जो है ही नहीं... अस्तित्व में..आँख उसकी देखती रहती...जो भी घट रहा है इस देह के सम्पर्क में.. इस देह के भीतर ओ बाहर.. सुझाई दे रहा जो भी फिर... है इक तजुरबा ही महज़.. इक हक़ीक़त ही महज़..पर है नहीं यह सत्य.. ऐसा बोध सकना हो सका गर...... आनंदविभोर आनंदभिंगी प्रेममय है ज़िंदगी फिर.... अरुण आदमी और पल ************* आदमी को पल पल, पल बनकर जीना है..पर आदमी का हर पल, आदमी बनकर जी रहा है -अरुण

29 0ctober

अपने चित्तपर व्यापक ध्यान जाते दिखे ************************************ चित्त है....... चित्र की तरह विचित्र अलग अलग प्रतिमाएँ... एकही स्याही है। एकही धरातल पर चित्र बने.. दिखे कहीं पर्वत तो दिखे कहीं खाई है। अरुण कुछ शेर ************ हटा जब मोह बाहर का, खुले इक द्वार भीतर में पुकारे खोज को कहकर- यहाँ से बढ़, यहाँ से बढ़ भरी ज्वानी में जिसको जानना हो मौत का बरहक* उसी को सत्य जीवन का समझना हो सके आसाँ जिसम पूरी तरह से जानने पर रूह खिलती है 'कमल खिलता है कीचड में' - कहावत का यही मतलब ख़याल भरी आँखों से............. मै दुनिया देखूं तो दुनिया दिखे ......................ख़यालों जैसी अँधेरे से नहीं है.............. बैर रौशनी का कुई दोनों मिलते हैं तो रौनक सी पसर जाती है बरहक = सत्य, * सिद्धार्थ (भगवान बुद्ध) के बारे में - अरुण एक शेर ********* एकही वक़्त.. कई सतह पे जीनेवाला आदमी ख़ुद में खुदा और खुदाई भी है - अरुण ग़ौर करें ******** किसी को याद  करना फिर उसीको भूल जाना वजह येके.......नयीही सोचका दिल में उभरना कोई भी सोच..........अपनेआप में पूर

26 अक्तूबर

वे भी भरोसेमंद नही... ********************** वे लोग जिनकी राष्ट्रनिष्ठा पर शक हो उन्हे भरोसे लायक न समझना वैसे तो ठीक ही है । पर क्या वे लोग या संगठन जो देश के संविधान की मूलभूत आत्मा को ही सिरे से नकारते हैं .. और फिर भी अपनी इस सोच और इरादे को आदर्शवादी शब्दों एवं धारणाओं में छुपाकर रखते हैं.... भरोसेमंद हो सकते हैं? अरुण एक शेर ********* अल्फ़ाज़ हैं इशारें महज़.. ..हकीकत नही पर उसे ही मान लेते सच.....ऐसे कम नही अरुण यह जीवन केवल एक संचार है **************************** जीवन सिर्फ है एक संचार...न कोई आकार न प्रकार न कोई नाम न उच्चार न किसी काल-पट्टी के खांचो से कट सके .... न भूत, भविष्य और वर्तमान में बट सके न बिंदु है सो न है रेखा.. दिखे... जैसा जिसने देखा जब देखो तभी है ....न कल था न अभी है ....और इसीलिए इसे नया या पुराना कहना भी ठीक नहीं न पुराना था कभी सो ............नया कहना भी सटीक नहीं अज्ञानवश निरंतरता का आभास जगाने वाला स्थाई या कि अस्थाई.... इन जैसे सवालों को उठानेवाला... यह जीवन केवल एक संचार है -अरुण     एक शेर ********* अपने रिश्तों

21 0ctober

एक शेर ********** हालात-ओ-तजुरबात के चेहरे.... अलग अलग आदमी तो एक ही है जो लगता....  जुदा जुदा अरुण फूल और प्रेम ************* भले ही फूल किसी खास टहनी से जुड़ा लगता हो, उसकी सुगंध परिसर के कण कण में घुल जाती है.. मगर आदमी का प्रेम अपनों तक ही सिमटकर रह जाता है -अरुण मुक्ति ************ पिंजड़े का पंछी खुले आकाश में आते मुक्ति महसूस करे यह तो ठीक ही है परन्तु अगर पिंजड़े का दरवाजा खुला होते हुए भी वह पिंजड़े में ही बना रहे और आजादी के लिए प्रार्थना करता रहे तो मतलब साफ है.... आजादी के द्वार के प्रति वह सजग नही है वह कैद है अपनी ही सोच में अरुण मृत्यु ******* मृत्यु को लेकर बहुत अधिक गूढगुंजन करना व्यर्थ है।मृत्यु भी एक प्रकार की गाढ़ी नींद ही है। गाढ़ी नींद हो या पूरी बेहोशी ... अगर प्राणी प्राणडोर से बँधा हो तो उसके जागने की संभावना बनी रहती है। प्राण निकल गये हों तो अन्य उसे मृत हुआ जान लेते हैं। मतलब यह कि... गाढ़ी नींद या पूरी बेहोशी...दोनोंही, पुन: जागने की संभावना से युक्त, मृत्यु की ही अवस्थाएँ हैं। अरुण अस्तित्व की अस्तित

14 0ctober

सच्ची बात ********** गर नदी होती नहीं... फिर तट न होते दृश्य - दर्शक,...दृष्टि के ही दो किनारे अरुण ------------------------------------------------ 'अंतिम यात्रा' **************** क्यों न शुरू की मेरी 'अंतिम यात्रा' की तैयारी... उसी दिन जिस दिन......... मैं इस धरती पर आया *** उसी दिन से तो शुरू कर दिया आपने गला घोटना मेरी कुदरती आजादी का.. उसी दिन तो शुरू किया आपने.....मेरे निरंग श्वांसों में..... अपनी जूठी साँस भरकर...उसमें अपना जहर उतारना...... उसी दिन से तो सही माने में मेरी क़ैद शुरू हुई, ***** आपके विचारों, विश्वासों और आस्थाओं ने मेरी सोच को रंगते हुए ....... मुझे बड़ा किया...मुझे पाला पोसा बढ़ाया....आप जैसे 'अच्छे-भलों' के बीच में लाया.... आपने जिसे अच्छा समझा वैसा ही जीना सिखाया.....पर कभी न समझा कि...... आप फूल को ......उसकी अपनी ज़िंदगी नही,  समाज को जो भाए , ऐसी मौत दे रहे हो, *** अब तो मै बस ....सामाजिक प्रतिष्ठा और उपयोग का सामान बनकर रह गया हूँ ... अब पहुँचने जा रहा हूँ अंतिम छोर पर....... उस राह के...जिसका आरम्भ ही न हो पा

तारीख़ १२ अक्तूबर २०१५ तक

एक शेर ********* कोई नही इरादा..... कोई नही डिज़ाइन इंसा का मन ज़हन ही इस सोंच से परेशां ------------- सारी क़ुदरत किसी मक्सद से नही और न ही किसी योजना का हिस्सा है। ये आदमी ही है केवल जो मक्सद की सोचता है। अरुण सच्ची बातें *********** हर मंजिल........ कोशिश के चलते पायी जाती है इक ऐसी भी, कोशिश के थमते... पास चली आती ********** चेहरे देखकर ही दिल से दिल जुड़ते नही हैं फकत पढ़ शब्द गीता के प्रभु मिलते नही हैं अरुण एक शेर ********* है यादों के परे जो, बस उसका भान हो जाए प्रभु को याद करने से ....प्रभु मिलते कहाँ हैं? अरुण प्रेमपत्र ******* सभी लिख रहे हैं अपने भीतर अपनी अपनी कहानियाँ, अपनी अपनी सोच और मंसूबे....... जिसपर लिखा जा रहा है वह काग़ज़, पत्र या प्रेमपत्र तो सब का एक ही है अरुण यह 'प्यास' तो निजी ही है ************************* यह भीड़ उन लोगों की ही जो अपनी निजी 'प्यास' का समाधान ढूंढ़ नही पाए पर यह जान कर कि इर्दगिर्द भी लोगों में ऐसी ही 'प्यास' है, वे इकठ्ठा हुए,'प्यास' का उपाय ढूँढने में जुट गए, कई सा

पेज ७२ तक

एक गजल ********** क्योंकर सज़ा रहे हो परछाईयों के घर? जागोगे जान जाओगे सपने के तू असर कुछ साँस ले रहे हैं .,ज़माने के वास्ते कुछ मेहरबाँ बने हैं ज़माने से सीखकर जो ख़ुद को देखता है..दूजों की आँख से दूजों को जान देता है अपनी निकालकर उसको ही लोग कहते खरा साधु खरा संत जिस 'संत' का है मोल किसी राजद्वार पर जिसके लिए बदन हो किराये का इक मकान उसको न चाहिए.......कोई दीपक मज़ार पर अरुण Please meditate on this – ------------------------------------- Mind cannot be total awareness only because it is a byproduct of unawareness. Yes, mind can be aware of itself (within) and others (without). Awareness is not being ‘aware of’. Awareness is a state which is off (or beyond) the mind. ‘Being aware of’ is a focusing by a subject on an object, whereas, awareness is beyond subject-object duality Arun मेरी बातें.... ************* मेरी बातें सुनके शायद तुम बदल जाओ मै बदल पाऊँ न पाऊँ कह नही सकता रास्ते होते नही मंजिल अजब ऐसी ऐसी मंजिल को बयां मै कर नही सकता भीड़ ब

६५ पेज तक का संकलन

वैसे तो कई गुज़रे आँगन से मेरे - आफताब एक सीधे उतर आया दिल में आकर बस गया अरुण हिंदी ये है बाहर वो है भीतर, भीतर बाहर कुछ भी नही जहाँ दीवारें खड़ी न होती भीतर बाहर कुछ भी नही ------------------------------------------------ मराठी आकाश नसते तर धरणी नसती भिंती नसत्या तर मने ही नसती अरुण मराठी- बोध-स्पर्शिका **************** व्यक्ति आणि व्यक्तिमत्व ----------------------------- कोणती भाषा लिहिणे आहे, यावर कागदा चा पोत ठरत नसतो कसे ही असो व्यक्तिमत्व व्यक्ति मात्र एकच असतो ............................ तहानल्यां चे गोत -------------------- तहान केवळ माझीच... ओलावतो माझेच मी ओठ असती जर ती सामुहिक.. तर बनले असते 'तहानल्यांचे' ही गोत ............................... अरुण हिंदी - चिंतन ************* विज्ञान और आध्यात्म का आपसी सहयोग ******************************************* विज्ञान और आध्यात्म आपस में एक दूसरे से सहयोग करते हुए ही... सृष्टि और उसके जीवन संबंधी सत्य को समझ सकते हैं। विज्ञान के पास सही explanations हैं तो आध्यात्म के पास सही समझ ।

५० पेज तक का संकलन

सच्ची बात *********** कोई तो क़रीबी होते हैं......कोई तो पराये होते हैं ऐसे भी कई रिश्ते जोके  शिद्दत से भुलाये होते हैं अरुण सच्ची बात *********** हर जगत की सहुलियत को रच दिया है सोच ने सहुलियत ने सोचने की...रच दिया ईश्वर सहज अरुण सच्ची बात *********** आदमी है जब..... आदमी से ही डरा हुआ फिर अमन-ओ-चैन कहां और किधर से आएगा ? अरुण सच्ची बात *********** इशारे करने वालों से न नजरें जोड़ के रखना इशारा जिस तरफ़ हो उस तरफ़ ही देखना वाजिब अरुण सच्ची बातें *********** रौशनी हो तो नज़ारा साफ़ दिखता है, बात सही है पर.... न रौशनी न नजारा.. एक दूसरे पे निर्भर है ------------------------------------------- भगवान रौशनी है ........ऐसी प्रखर प्रगाढ़ जिसमें सभी उजागर हैं दिल के कारोबार अरुण सच्ची बात ********** शख़्स में हर- 'मै अलग हूँ' - ख़्याल आया जहनियत हिलने लगी भूचाल आया अरुण सच्ची बात ************ हज़ारों क़ायदे आये अमन-ओ-चैन के ख़ातिर न होगा कुछ असर.....हर ज़हन में ही जंग जारी है अरुण सच्ची बात ************ क़ुदरत को क्या पता हो... के उसका क्या

सच्ची बातें और कुछ कविताएँ

सच्ची बात ************ भीतर.. प्रकाश कायम है...लाना नहीं है, फिर आदमी अदिव्य  (unenlightened) क्यों है?, क्योंकि कल्प-सामग्री  (image-material) से बने ज्ञान-समझ-अहंकार की दीवार ने प्रकाश को उसतक पहुँचने से रोक रख्खा है, जब दीवार ढहेगी तब ...दिव्यत्व जागेगा -अरुण   सच्ची बात ************ किसी अनजान शहर में ......राह चलते जो भी दिखता है उसे हम देखते जाते हैं - आदमी, पेड़, वस्तुएं, दुकाने... ऐसे ही  सबकुछ - उनसे एक रिश्ता तो बनता है पर न तो हम उन्हें स्वीकरते हैं और न ही उन्हें नकारते हैं. इसतरह जुड़कर भी अनजुड़े रहे रिश्ते में आदमी का स्व (Self) उघाड़ता जाता है बिना किसी कोशिश के भीतर बाहर का अभिन्न्त्व खुला हो जाता है आदमी के ‘भीतर’ का उसके ‘बाहर’ से यही खरा रिश्ता है. परन्तु हम तो हमेशा ...पूर्वाग्रह ग्रस्त (baised और prejudiced) रिश्तों में ही जीते हैं -अरुण रुबाई ******* आसमां वक्त से हटते हुए........ ..देखा न कभी हर सेहेर  बाद रात....सिलसिला बदला न कभी कभी तूफान कभी मंद....... ..कभी ठहरा समीर आसमां अपनी जगह ठहरासा,  हिलता न कभी अरुण सच्ची बात ****

कुछ सच्ची बातें

सच्ची बात ********** कोईभी रचाता नही है जगत ये है रचना जो खुदसे रची जा रही है जिसे ये समझ आ गई बात गहरी उसे हर जटिलता सुलभ लग रही है - अरुण सच्ची बात ********** न किसी की मेहरबानियों के लिए हूँ झुकता..... जमीं चूमने के लिए है कुदरत में घुलना.. सही जिंदगी नही उससे......कुछ माँगने के लिए अरुण सच्ची बात ************ सृष्टि की न भाषा कोई.. न है बोलना उसे सृष्टि बनकर रहना और फिर .भोगना उसे संवाद विवाद न चक्कलस न चर्चा ज़रूरी जिओ केवल उसमें समाए, न परखना उसे अरुण सच्ची बात ********** जिंदगी हाँ.. ना......में दिया जबाब नही हिसाब रखनेवालों का ......हिसाब नही अनगिनत अक्षर हैं ....नये नये तजुर्बों के कुछ जानेपहचाने अक्षरों की किताब नही अरुण सच्ची बात *********** डर नही है मौत का.. है जिंदगी खोने का डर जी नही पूरीतरह से ..अधुर रह जाने का डर लम्हा लम्हा जिंदगी का जो जिया पूरी तरह मर रहा लम्हे में उसको खाक मर जाने का डर अरुण सच्ची बात ************ सत्य और शांति की तलाश में हिमालय जैसे निर्जन (जहाँ कोई जन न हो) स्थलों पर जाना भी ठीक होगा, अगर तलाश करनेवाला अ

रुबाई

रुबाई ******* ज़र्रा ज़र्रा है जुदा ना मलकियत उनकी अलग फिर करोड़ों में मेरी ये शख़्सियत कैसे अलग? यह उतारा दिल में जिसने सच्चा बुनियादी सवाल देखता ख़ुद में खुदाई ना खुदा जिससे अलग - अरुण

तीन रुबाईयां

रुबाई १ ******* हकीकत को  नजरअंदाज करना ही नशा है असल में होश खोता आदमी ही....दुर्दशा है तरीके मानसिक सब,...होश खोने के यहांपर ललक भी कम नही, बेहोश होना ही नशा है - अरुण रुबाई २ ******* बैसाखी के बल लँगड़ा ...चल पाता है अंधा हर हांथ का भरोसा..कर लेता है होश को चलना नही होता..ये अच्छा है बिन चले जागी निगाहों से पहुँच जाता है - अरुण रुबाई ३ ******* ये बस्ती ये जमघट हैं सुनसान मेले सभी रह रहे साथ.. फिर भी अकेले जुड़े दिख रहे.....बाहरी आवरण ही परंतु..ह्रदय धाग .... ......टूटे उधेडे - अरुण

६ रुबाईयां

रुबाई १ ****** हांथ वक्त का थामा तो माजी में ले जाता है वक़्त का सरोकार... जिंदगी से हट जाता है जिंदगी की साँस में सांसे मिलाओ ओ' जिओ देख लो कैसा मज़ा जीने का... फिर आता है - अरुण रुबाई २ ******* बूंद चाहें कुछ भी कर लें ना समंदर जान पाएं खुद समंदर हो सकें जब लहर में गोता लगाएं जाननेसे कित्ना अच्छा ! जान बन जाना किसीकी एक हो जाना समझना एक क्षण सारी दिशाएं - अरुण रुबाई ३ ***** तार छिड़ते.....वेदना से गीत झरता है विरह के उपरांत ही मनमीत मिलता है प्रेम शब्दों में नही...संवेदनामय दर्द है आर्तता सुन प्रार्थना की देव फलता है - अरुण रुबाई ४ ******* हरारत जिंदगी की सासों को छू जाती है लफ़्ज़ों में पकड़ो, बाहर निकल जाती है लफ़्ज़ों को न हासिल है ये जिंदगी कभी जिंदगी दार्शनिकों को न समझ आती है - अरुण रुबाई ५ ****** दूसरों के साथ रहो...नाम पहनना होगा किसी भाष को जुबान पे ..रखना होगा जिसका न कोई नाम भाषा, उस अज्ञेय को भीतर शांत  गुफ़ाओं में ही जनना होगा - अरुण रुबाई ६ ******* पत्ते फड़फड़ाते हैं ......डोल रही हैं डालियाँ किसने उकसाया हवा को ? लेने अं

आठ रुबाईयां

आठ रुबाईयां ************** रुबाई १ ****** प्यार में गिरना कहो ....या मोह में गिरना कहो इस अदा को बेमुर्रवत .....नींद में चलना कहो नींद आड़ी राह ..जिसपर पाँव रखना है सरल जागना चलना ना कह, उसे शून्य में रहना कहो - अरुण रुबाई २ ****** जिंदगी द्वार खटखटाती, हाज़िर नही है टहलता घर से दूऽऽऽर, ..हाज़िर नही है ख़याली शहर गलियों में भटकता चित्त यह जहांपर पाँव रखा है वहाँ  हाज़िर नही है - अरुण रुबाई ३ ***** कुदरत ने जिलाया मन. ..जीने के लिए होता  इस्तेमाल मगर......सोने के लिए जगा है नींद-ओ- ख़्वाबों का शहर सबमें मानो जिंदगी बेताब हुई....मरने के लिए - अरुण रुबाई ४ ****** खरा इंसान तो इस देह के.. अंदर ही रहता है वहीं से भाव का संगीत मन का तार बजता है जगत केवल हुई मैफिल जहाँ संगीत मायावी सतत स्वरनाद होता है महज़ संवाद चलता है - अरुण रुबाई ५ ***** बाहर से मिल रही है ..पंडित को जानकारी अंदर उठे अचानक.......होऽती  सयानदारी इक हो रही इकट्ठा........दुज प्रस्फुटित हुई यह कोशिशों से हासिल, वह बोध ने सवारी - अरुण रुबाई ६ ******* 'जो चलता है चलाता है उसे कोई'

तीन रुबाईयां

रुबाई ******* बैद मन का.. मर्ज़ को अच्छा नही करता टेढ़ को सीधा करे .....अच्छा नही करता सबके सब सीधे से पागल.. ऐसे सीधों से वह कभी मिलता नही ...चर्चा नही करता - अरुण रुबाई ***** ठहराव नही है ......है बहाव जिंदगी न रुका कुछ भी, न पड़ाव है जिंदगी न चीज़, न शख़्स, न जगह है कोई 'है' का न वजूद यहाँ, बदलाव है जिंदगी - अरुण रुबाई ******* सिक्के के पहलुओं में दिखता विरोध गहरा भीतर से दोनों हिलमिल आपस में स्नेह गहरा ऊपर से दिख रही हो आपस की खींचातानी भीतर में बैरियों के ... बहता है प्रेम गहरा - अरुण

रुबाई

रुबाई ***** पेड़ जंगल में समाजिक नही....एकांत में है भीड़ से हट के भी हर शख़्स खड़ा भीड़ में है भीड़ में पला बढ़ा भीड़ का ही एक रूप हुआ आसमां सब का एक ही न किसी भीड़ में है - अरुण

तीन रुबाईयां

रुबाई ****** ज़रूरत को सयाना ठीक से परखे ज़रूरी जानकारी को टिकी रख्खे निरा मूरख पढत-पंडित गलत दोनों गिरे कोई तो कोई ज्ञान को लटके - अरुण रुबाई ****** दुनिया में नही होती कुई बात कभी पूरी दिन रात जुड़े इतने .....छूटी न कहीं दूरी हर रंग दूसरे से कहीं ज़्यादा कहीं फीका इंसा ना समझ पाए क़ुदरत की समझ पूरी - अरुण रुबाई ****** यह जगत टूटा हुआ तो है नही....."लगता" ज़रूर और फिर आते निकल.. ....स्वार्थ भय ईर्षा ग़रूर इसतरह मायानगर आता नज़र.. ....बनता बवाल "लगना" ऐसा जो निहारे....जगत उसका शांतिरूप - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* जहांपर पाँव रख्खा है वहीं पर 'वो' खड़ा है प्रयासों से मिले .....ऐसी न कोई संपदा है नज़ारे जी रहें हैं ...हो नज़र सोयी या जागी सभी मारग सभी खोजें समझ की मूढ़ता है - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** है यहीं अभ्भी ....उसे पाना नही है पाया हुआ है...ढूँढने जाना नही है देख लेना है कहीं ना बंद हो आँखें ख़्वाब में या याद में खोना नही है - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* चुप्पी भी बोलती है चुप हो के फिर सुनो अपनी ही सोच में हो...बाहर निकल,सुनो कुछ जानना नही है ख़ुद को भी भूल जाओ पूरे जगत की धुन में घुल जाओ फिर सुनो - अरुण

रुबाई

रुबाई ****** दिल से समाना सकल में आराधना है मन से हुई जो याचना... ना प्रार्थना है अपनी बनाई मूर्ति को भगवान कहना एक अच्छा और भला सा बचपना है - अरुण

दो रुबाई

रुबाई ****** किसी के साथ भी हो लेता है तर्क वकालत के बड़े काम आता है तर्क तर्क करते लोग होशियार दिखते हैं,मगर जिंदगी को समझ पाया न तर्क - अरुण रुबाई ******* प्रेम में जो बात है.........सन्मान में नही कागजी फूल में तो ..... कोई जान नही प्रेम प्रेमी और प्रेयस सब बराबर के सगे किसी का मान...किसी का अवमान नही - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** पहनावा शख़्सियत का पहनो उतार दो आदम से  जो मिला है उसको सँवार लो अपने लिबास में ही जकड़ा है आदमी तोडों ना बेड़ियों को बंधन उतार दो - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* पादरी मौला ओ पंडित की रुचि रब में कहाँ राह बेचू हैं सभी..मंज़िल से मतलब है कहाँ यूँ,  सभी थाली कटोरी और प्यालों की दुकानें भूक विरहित पेट हैं तो प्यास भी लब पे कहाँ - अरुण

रुबाई

रुबाई ****** सोचते हो जो...नही है जिंदगी वैसी अंधता जो भी कहे...ना रौशनी वैसी रौशनी रौशन हुई ना कह सकी कुछ भी केहन सुन्ने की ज़रूरत क्या पड़ी वैसी? - अरुण

रुबाई

रुबाई ****** मन बिना यह तन चला होता न होती त्रासदी अश्व ख़ुलकर भागता रहता न होता सारथी हाय! तन में क्यों सभी के मन की विपदा आ ढली रिश्ता तन मन का सही जिसमें घटा....सत्यार्थी - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* आँख देखे सामने का कण सकल सब साथ साथ मोह होते शुद्र से ......होते विकल जन साथ साथ आँख चाहे उस तरह से देखना ...........भूले सभी देख पाए बुद्ध ही.....निरबुध सभी हम साथ साथ - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* पत्थरों में भी दिखे जिसको रवानी कह न पाता इस तजुर्बे को ज़ुबानी आँख जिसको मिल गई हो ये अजूबी तेज़ तूफ़ानों में देखे..... ठहरा पानी - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* हर जुड़ा रिश्ता तजुरबे पर करारों पर खड़ा है आपसी सौदा हिसाबों के लिए ही वह बना है बात सच है फिर भी कड़वी जान पड़ती हो भले इस हकीकत से हटे उनके लिए दुनिया बला है - अरुण

रुबाई

रुबाई ****** सागर में मछली है .........मछली में सागर है पीढ़ी दर पीढ़ी का ........इकही मन-सागर है सागर से मुक्त कहां ..मछली जो कुछ भी करे जबतक वह गल न जाय बन न जाय सागर है - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* न कोई अकेला है और ...न है कोई अलग यहाँ से वहाँ तक एक ही अस्तित्व है सलग यह 'अलगता' है ग़लतफ़हमी सदियों पुरानी दिल मानने को नही तैयार ...बात ये सख़त - अरुण

रुबाई

रुबाई ****** दिल की धड़कन मन की मनमन धमनियाँ हैं तर देख चलती जिंदगानी और .....उसका हर असर अपने भीतर और बाहर..... जिंदगी जिंदा सबक़ व्यर्थ के प्रवचन सभी सब ....और चर्चा बेअसर - अरुण

रुबाई

रुबाई ****** सत्य है क्या.. यह खोजना.. बेकार है यारों दोहा...'पानी बिच मीन'...   साकार है यारों क्यों है मछली प्यासी?.....-बस खोजो यही इसी में सत्य से............साक्षात्कार है यारों - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* असलियत सुलझी हुई है .कल्पना उलझा रही कल्पना की सत्यता दिल की पकड ना आ रही एक पल जागा हुआ.......तो दूसरा सोया हुआ अंखमिचौली आदमी की समझ को गुमरा(ह) रही - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* जिंदगी से है शिकायत सिर्फ़ बस इंसान को और कोई ना बनाए....अलग ही पहचान को सब के सब क़ुदरत की सांसे आदमी ही भिन्न है आदमी इतिहास की रूह जी रहा अरमान को - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** यूँ अंधेरा न उजाले को मिटा पाता है न उजाले को अंधेरे पे तरस आता  है चिढा हुआ है सिरफ ऐसा जगा 'आस्तिक' वह नींद में रहते  दूसरों को जो जगाता है - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* खड़ा हो सामने संकट भयावह काल बनकर निपटना ही पडे ..उससे हमें  तत्काल बढ़कर निरर्थक.. सोच चर्चा भजन पूजन..ये सभी तो दिमागी फितूर... बैठे आदमी के भाल चढ़कर - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** जब तलक ना आग लग जाती... न छिड़ जाती लड़ाई तब तलक ना साथ आकर क़ौम.....'मन' पर सोच पाई सब के सब ..........अपनी ही अपनी दास्ताँ में गुम हुए ना कभी इंसानियत की.......... ..चेतना की समझ पाई - अरुण

रुबाई

रुबाई ****** खुद के भीतर जा उतर सीढी कुई लगती नही दुसरों की आंख से दुनिया कभी दिखती नही आइनें भी शक्ल दिखलाते मगर क्या काम के आइनों  में शक्स की गहराईयां ...दिखती नही - अरुण

रुबाई

 रुबाई ******** बंद आँखों से जलाओगे दिये बेकार होगें देखकर करना हुआ तो मनसुबे बेकार होंगे बंद आँखे तर्क में विज्ञान में बाधा नही पर भीतरी बदलाव के सब रास्ते बेकार होंगे - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** सतह पे लहरें हैं, .....हैं संघर्ष के स्वर संथतल पर शांतिमय एकांत का स्वर सतह-तल दोनों जगह ....चैतन्यधारा सतह..लहरें..संथतल सब एक ही स्वर -अरुण  

रुबाई

रुबाई ******** आग पानी बन उड़ेगी और पानी बन धुआं सीखने को कुछ नहीं है भूलने का सब समां सब गिराओ ज्ञान अपना शून्य में रहकर रमों शून्य में ही रह रही बुद्धत्व की संवेदना - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* ग़रीबी एक विपदा है कि हो बाहर या भीतर खरी वो संपदा जो जनम ले बाहर और भीतर रहें आइन्स्टाइन बुद्धी में ह्रदय को बुद्ध भाएँ तभी विज्ञान और आध्यात्म का घटता स्वयंवर - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* तजुर्बात जहांतक सोच सकें..अंदाज़ा वहांतक जाता है आँखों को दिखे जितना रस्ता ...उतना ही भरोसा होता है हम दुनियादारी में उलझे.......अपने से परे सोचा ही कहां धुँधलीसी नज़र ख़ुदगर्ज कदम....खुद से न आगे जाता है - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* भूत ही भूत महल बनाता है कल्पनाओं में रमा रहता है महल में बैठे..महल के अंदर ही वर्तमां को भी बुला लेता है - अरुण

रुबाई

रुबाई ****** कह देते मैंने किया.. तुम नही करते जो भी करे नाम महज़ ...अपना देते नही कुई करे.....सिर्फ़ होना ही होना कण कण जो खड़े...लगें उड़ते चलते - अरुण

रुबाई

रुबाई ************ सुनना है?.. सुनना भर..न समझने की फ़िक्र कर मौन को साधे रहो.......मनमें न कोई ज़िक्र कर हर सुनी बातें वचन क़िस्से तभी...., ताज़ातरीन सुननेवाले ने सुने गर  ....ख़ुद की हस्ती भूलकर - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* रोग हो तो दूर कर दे.... ऐसा डाक्टर है यहाँ अडचनों को दूर कर दे....ऐसा चाकर है यहाँ नासमझ इंसान है सो.. मनगढों का है शिकार मानसिक भ्रमरूग्णता हैं....मनरचे मशवर यहाँ - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** तैरते वक़्त कोई प्यास से तिलमिलाता हो, बात सुनी नही डूबता हो और पानी माँग रहा हो पीने को, बात जमी नही वैसे तो तैरकर या डूबकर ही...........जानी गई है जिंदगी चुल्लू चुल्लू पीकर जो जानना चाहें.. उनसे बात बनी नही - अरुण

रुबाई

रुबाई ****** देखने में भिन्नता का सब तमाशा एक का ग़म दूसरे की मधुर आशा देखनेवाले हज़ारों दृश्य केवल एकही 'भिन्नता' ने वाद जन्मे बेतहाशा - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* हवा से लहरें उठ्ठे टकराए लहर से लहर... दरिया ख़ामोश है हो हल्की हलचल या के हो तूफ़ानी क़हर ... दरिया ख़ामोश है बनते बिगड़ते रिश्तों का होश-ओ-असर सतहे जिंदगी पर ही तहख़ाने में झाँक के देखो सब्र-ओ-सुकून है..जिंदगी ख़ामोश है - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** जिसे दिख गई यह सच्चाई की वह हवा में उड़ रहे पत्ते पे खड़ा है भलाई इसीमें की वह जानले....कि नसीब उसका पत्ते से जुड़ा है फिर भी अपने अलग नसीब की बातें करना ही हो जिसकी फ़ितरत वह ज्योतिष से, बाबा से.....दिमाग़ी फितूरों से... जा जुड़ा है - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** बीती कभी अनबीती को देखने नही देती बिनचखे को  बिनचखा.....रहने नही देती है स्मृती की यह करतूत .परेशां है आदमी जिंदगी को जिंदा बने.......रहने नही देती - अरुण

रुबाई

रुबाई ******* ख़ुशी मेरी या मेरा ग़म....सब दूसरों के हांथ दूसरों की कारवाईयों का मैं हूँ...बस जवाब है मशीनी जिंदगानी ख़ुद तो कुछ करती नही ख़ुद करेगी कारवाई जब कभी जाएगी जाग - अरुण