कुछेक पेश हैं

कुछ शेर पेश हैं
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अबतक तो माज़ी* ही है ज़िंदा
मै हूँ...तो कहाँ ?... न ख़बर मुझको
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कब आदमी की आदमी से होगी मुलाक़ात ?
अभी बस मिल रहे हैं..आपसी तआरुफ़*
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बड़ा मुश्किल गुज़रना आलमी रिश्तों की गलियों से
कभी वे फूल जैसे तो कभी काँटों से भी बदतर*
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माज़ी = गुज़रा वक़्त,  तआरुफ़ = परिचय, बदतर = बहुत ख़राब

अरुण

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