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Showing posts from October, 2014

एक दोहा

एक दोहा ********** अगला कुई न जानता, अगले में .....का होय? यह गुर जो भी जान ले, बिना किसी डर सोय - अरुण  जो भी लोग अगला या भविष्य को जानने की बाधा से ग्रस्त हैं, वे नादान हैं। भविष्य किसी को भी पता नहीं होता, न पता हो सकता है । क्योंकि समय या काल एक मनोवैज्ञानिक उत्पाद है, अस्तित्वगत तथ्य नही। - अरुण

राजनीति का अखाड़ा

राजनीति का अखाड़ा ********************* बिछी हुई मिट्टी को रौंदते हुए, उसमें अपने पैर जमाते, उसकी मुलायमियत का फ़ायदा उठाते... अपनेको चोट से बचाते हुए, कोई भी पहलवान  अखाड़े में कुश्ती के दाँवपेंच खेलता रहता हैं। सामनेवाले को चित करते हुए, उसे धूल चटाना, उसके खेल का पहला मक्सद होता है । इस लोकतांत्रिक देश के अखाड़े में राजनैतिक उम्मीदवार और  पार्टियाँ यही खेल चुनाव आयोग की देखरेख में बड़ी ही कुशलता से खेल रही हैं । पहलवान, कुश्ती, दाँवपेंच, अखाड़ा, चित करना, पटकनी देना, धूल चटाना..... इन शब्दों या उपमाओं का तो औचित्य, राजनीति के संदर्भ में, आसानी से समझ आ जाता है । पर सवाल उठेगा.... मिट्टी की उपमा किसके लिए ? मिट्टी ... यानि यह भोलीभाली, मुलायम, सभी को बर्दाश्त करनेवाली, दुष्टों को भी पांव जमाने का मौका देनेवाली.... भारत की सहिष्णु जनता । चुनाव के दौरान यह जनता पार्टिंयों के हर प्रचारी सचझूठ को सुन लेती हैं, उनके बहकावी आश्वासनों के स्वागत के लिए तैयार रहती है... भावुकता की जादुई  हवा अगर चल पड़े तो बहक भी जाती है । पार्टीयों के  आपसी गालीगलोच से अपना मन बहला लेती हैं। यह आपसी &

सबका अंतिम सत्य तो एक ही है

दौड़ती रेलगाड़ी का एक डिब्बा, भीतर, यात्री चल फिर रहे हैं ... डिब्बे के एक छोर से दूसरे छोर के बीच, दोनों तरफ की दीवारों के बीच...... उनके चलने-फिरने में भी कोई न कोई गति लगी हुई है,  किसी न किसी दिशा का भास है कहने का मतलब... डिब्बे के भीतर चलते फिरते लोगों से पूछें तो हर कोई अपनी भिन्न दिशा और गति की बात करेगा जबकि सच यह है कि.. सभी यात्री दौड़ती रेल की गति और दिशा से बंधे है उनकी अपनी गति और दिशा...एक भ्रम मात्र है सभी का अंतिम सत्य तो एक ही है भले ही हरेक का आभास भिन्न क्यों न हो -  अरुण

मुक्ति

पिंजड़े का पंछी खुले आकाश में आते मुक्ति महसूस करे यह तो ठीक ही है परन्तु अगर पिंजड़े का दरवाजा खुला होते हुए भी वह पिंजड़े में ही बना रहे और आजादी के लिए प्रार्थना करता रहे तो मतलब साफ है.... आजादी के द्वार के प्रति वह सजग नही है वह कैद है अपनी ही सोच में - अरुण

साँस

साँस ******** जीने जिलाने की ही दुनिया हो तो बस,  हलकी सी  साँस बहुत है दुनिया मिलने मिलाने की हो तो फिर हर साँस के साथ.. पास और दूर वाले रिश्तों की निर्भरता जुड जाती है..... पाने-खोने, कमाने-गँवाने वाली दुनिया में जी रही साँसों से हिसाबों की भारी भारी तख़्तियाँ लटक कर साँसों को बोझिल बना देतीं हैं ऐसे बोझिल साँस वालों को ही ' आलोम विलोम' वाले आसानी से अपना ग्राहक बना लेते हैं पर कुछ नही होता... कोई नही बताता ऐंसों को कि अपनी साँसों से बस रिश्तों की निर्भरता हटाओ हिसाबी तख़्तियाँ उतार लो... साँस फिर से हलकी होकर बहने लगेगी... एक मधुर मृदुल पवन-झोंके की तरह - अरुण

संस्कारों से हो रही घुटन की आवाज़

क्यों न की मेरी अंतिम यात्रा की... शुरुवात उसी दिन जिस दिन मैं इस धरती पर आया उसी दिन से तो शुरू कर दिया आपने गला घोटना मेरी कुदरती आजादी का उसी दिन तो शुरू किया आपने मेरे निरंग श्वांसों में अपनी जूठी साँस भरकर उसमें अपना जहर उतारना उसी दिन से तो सही माने में मेरी क़ैद शुरू हुई, आपके विचारों, विश्वासों और आस्थाओं ने मेरी सोच को रंगते हुए मुझे बड़ा किया...मुझे पाला पोसा बढ़ाया.... आप जैसे 'अच्छे-भलों' के बीच में लाया आपने ज अच्छा समझा वैसा ही जीना सिखाया पर कभी न समझा कि आप फूल को उसकी अपनी ज़िंदगी नही समाज को जो भाए ,ऐसी मौत दे रहे हो, मै तो बस सामाजिक प्रतिष्ठा और उपयोग का सामान बनकर रह गया, अब पहुँचने जा रहा हूँ अंतिम छोर पर... उस राह के जिसका आरम्भ ही कभी न हो पाया अरुण

निजता का भावभ्रम ही सारी मनोवैज्ञानिक परेशानियों का मूल

जीव के जन्म का जीवशास्त्रीय अर्थ है, माँ की कोख से अलग हुए एक स्वतंत्र जीव का अवतरण व उसके जीवन की शुरुवात। यह शुरुवाती जीवनस्वरूप ही जीव का मूल जीवन स्वरूप है। बात यदि मनुष्य के संदर्भ में की जाए तो.....मनुष्य-जन्म से कुछ अवधि या समय तक, मनुष्य में, मनुष्य और पूरी मानवता के बीच... भिन्नता का, कोई भाव रहता ही नही । बाद में, सामाजिकता का स्पर्श ही मनुष्य में भिन्नता जगाते हुए निजता का भावभ्रम सजीव कर देता है।   यहीं से, निजता या द्वैतभाव या individuality की परंपरा या अादत हर व्यक्ति की मानसिकता को जकड़ लेती है । यह निजता सामाजिक जीवनयापन के लिए एक सुविधा भी है और कष्ट या suffering भी, सुरक्षा की माँग भी है और असुरक्षा का भय भी । जीवन के सारे मानसिक संघर्षों और परेशानियों का जन्म इसी निजता या भिन्नता के भाव से होता है । 'जागे हुओं' ने कहा है ...... गहन आत्मावलोकन में निजता के ओझल होते ही निजताजन्य वेदनाओं की स्मृति भी ग़ायब हो जाती है, और पुनः अवतरित होता/होती है... मूल जीवन-स्वरूप या वह मूल सकल प्रेम-अवस्था। अरुण बात को इससे अधिक सरल नहीं बना पा रहा, समझ आ जाए तो ठीक, न आए

स्वभाव (Nature) और संस्कार (Nurture)

हम स्वभाव (Nature) और संस्कारों (Nurture) के मिलेजुले रूप है । ध्यान.... दोनों को अलग अलग कर देख पाता है । मन..चूँकि संस्कारों के प्रभाव में होता है, स्वभाव को देख पाने में असमर्थ है । ध्यान... चूँकि स्वभाव में स्थिर है, उसके द्वारा संस्कारों को स्पष्टतः देखे जाते ही, संस्कारों का प्रभाव या बंधन क्षीण हो जाता है । आसमां को मुठ्ठी पकड़ नही पाती, वैसेही, स्वभाव.. पकड के बाहर है । संस्कार तो, पकड़ का ही दूसरा नाम है । -अरुण

एक चिंतन

एक चिंतन ************** लोगों को सुखी कैसे रख्खा जाए? -------इसपर सभी समाज एवं अर्थ विचारक सोचते रहते हैं । लोगों के मन में सुख दुःख सम्बन्धी भावनाएं कब और क्यों उभरती है? -------- इसका उत्तर मनोवैज्ञानिक देता है । मानवमात्र के  सुख दुःख को लेकर किसने क्या कहा? -----------इसे दार्शनिक खोजता एवं उसका विवेचन करता है । सुख दुःख का परमअस्तित्व में क्या कोई स्थान है ? ----------इसपर, रहस्य-दृष्टा अपने को एवं अपने समाजी संबधो को               प्रति पल पूरी तरह निहारते हुए, सुखदुख के मिथ्यापन को भी देखता रहता है । अरुण

प्रपंच मन में है, ध्यान में नही

सिनेमा हाल में मूव्ही चल रही है। बालकनी के ऊपर कहीं एक झरोखा है जहाँ से प्रकाश का फोकस सामने के परदे पर गिरते ही चित्र चल पड़ता है, हिलती डोलती प्रतिमाओं को सजीव बना देता है। हमें इन चल- चित्रों में कोई स्टोरी दिख रही है। हम उस स्टोरी में रमें हुए हैं। परन्तु जैसे ही ध्यान, झरोखे से आते प्रकाश के फोकस पर स्थिर हुआ, सारी स्टोरी खो गई। केवल प्रकाश ही प्रकाश , न कोई स्टोरी है, न कोई चरित्र है, न घटना, न वेदना, न खुशी, कुछ भी नही। ये सारा प्रपंच परदे पर है, प्रकाश में नही। संसार रुपी इस खेल में भी, प्रपंच मन में है, ध्यान में नही। - अरुण

स्व है दुनिया, दुनिया ही है स्व

स्व ही दुनिया, दुनिया ही स्व *************************** यह ५ फ़ुट का देह, इसके भीतर चेतनेवाली आग, क्या इतनी ही है मेरी दुनिया? क्या इतना क्षुद्र अस्तित्व ही मेरा अपना है? क्या मेरा वास्ता या सरोकार इसी 'अति-संकुचित' आत्म से है? फिर वह जो बाहर मुझे दिखाई पड़ती है, मुझे रिझाती है, मुझे डराती है, मुझे संभालती और मुझसे टकराती भी है, जिसे मै दुनिया कहता हूँ, वह क्या है? क्या वह मेरा आत्म नही है? क्या वह मुझसे जुदा है? जब अचानक मेरी गहनतम, ऊँची और व्यापक दृष्टि उद्घाटित होती है... तब मैं देखता हँू .....मुझमें और दुनिया के भीतर संचारता हुआ मनोरसायन तो एक ही है, केवल एक ही नही....वह सारा का सारा एक दूसरे से गुजरता एक संलग्न समग्र प्रवाह बना बह रहा है । मेरे भीतर बसा भय, क्रोध, ईर्षा, द्वेष, लालसा, महत्व की आकांक्षा और संघर्ष...सबकुछ वही...दुनिया के मैदान में ... मारकाट, युद्ध, अत्याचार, बलात्कार, भ्रष्टाचार, स्वार्थवाद  (सभी वाद) और ऐसी ही अनेक दुर्व्यवस्थाओं का रूप लिए उजागर हो रहा है । मैं ही दुनिया और दुनिया ही मै है,  दुनिया के इन्हीं  दुर्व्यवस्थाओं का मै प्रतिफल हँू  और

दो सांकेतिक शेर

भुला दिया हो मगर मिट न सकेगा हमसे जो मिटाना है उसे भूल नहीं पाते हम (अस्तिव जिसके हम अभिन्न हिस्से हैं उसे भले ही हम भूले हुए हों पर उसे हम कभी मिटा नहीं सकते. परन्तु जिसको दिमाग ने रचा है, वह हमारा व्यक्तित्व, हमें मिटाना तो है पर उसको हम किसी भी तरह भूल नहीं पाते.) ******************** जहन ने देखा नहीं फिर भी बयां कर देता दिल ने देखा है, जुबां पास नहीं कहने को (अन्तस्थ को मन देख नहीं पाता पर बुद्धि के सहारे शब्दों में अभिव्यक्त करता है जबकि भीतरी अनुभूति अन्तस्थ को पूरी तरह छूती है फिर भी अभिव्यक्ति का कोई भी साधन उसके पास नहीं है.) - अरुण

एक शेर

आज का शेर ~~~~~~~~~~ नहीं आँखों ने सुना और दिखा कानों से दिल से छूना हो जिसे धरना नहीं हाथों से ********** अंतस्थ को अंतःकरण से ही जाना जा सकता है मन से नहीं देखा जा सकता. ठीक उसी तरह जैसे आँखों से सुना नहीं जा सकता एवं कानो से देखा नहीं जाता. जिसे अंतःकरण ही देख सकता है उसे मन से पकड़ने का प्रयास व्यर्थ है - अरुण

यह 'प्यास' तो निजी ही है

यह 'प्यास' तो निजी ही है ************************* यह भीड़ उन लोगों की ही जो अपनी निजी 'प्यास' का समाधान ढूंढ़ नही पाए पर यह जान कर कि इर्दगिर्द भी लोगों में ऐसी ही 'प्यास' है, वे इकठ्ठा हुए,'प्यास' का उपाय ढूँढने में जुट गए, कई सार्वजानिक तरकीबें इजाद की, मंदिर मस्जिद बने, पोथियाँ लिखी- पढ़ी गईं , पूजा पाठ,नमाज़ प्रवचन,भजन पूजन ऐसा ही सबकुछ...... और अब भी यही सब..... मानो 'प्यास' बुझाने के तरीकें मिल गएँ हों पर सच तो यह है कि निजी 'प्यास' अभी भी बनी ही हुई है और फिर भी संगठित धर्मों को ही प्यास बुझाने का उपाय माना जा रहा है, इसी सार्वजनिक भूल की वजह 'निजी समाधान' खोजने की दिशा में आदमी आमतौर पर  प्रवृत्त नही हो पा रहा - अरुण