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Showing posts from September, 2014

तीन पंक्तियाँ में संवाद

तीन पंक्तियों में संवाद ************************** नफरत निभाई जाती है, संग... दोस्त के जिससे हो वास्ता उसीसे हो  घृणा +++++ भावना का विश्व है बड़ा पेचीदा ..................... मन न कभी मन को मिटा पाया कलम न कभी लिखे को मिटा पाई +++++ मन ही मन रचे समाधानों से काम चलाया जाता है ........................ अभी ईश्वर को जानने की जल्दी नही है हाँ, "मै  उसे मानता हूँ"- ये ख्याल ही ईश्वरसा है इसीलिए खोजी कम और आस्तिक बहुत हैं - अरुण

समूह-शास्त्र

सद्नीयत जो पूजते, मिलकर संघ बनाय पूजा होती संघ की, लेकर झूठ उपाय -अरुण आदमी का समूह-शास्त्र कुछ अजीब ही है। अच्छी नीयत से लोग इकट्ठा होकर संगठन बनाते हैं,आंदोलन चलाते है और फिर उस संगठन या आंदोलन की प्रतिष्ठा,सुरक्षा और वर्चस्व के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। समूह के हाँथों सद्नीयत का रूपांतरण बदनीयत में हो जाता है। - अरुण

सत्यम् शिवम् सुंदरम्

साधारणतया, किसी भी वस्तु, व्यक्ति या दृश्य को देखते ही कोई शाब्दिक,भावनिक आंदोलन...चाहे खुला हो या सुप्त....होने लगता है । मानो देखने और आंदोलन के बीच समय की gap हो ही न, ऐसा आभास होता है । इस कारण चित्त  'केवल और केवल देखना'- ऐसी प्रतीति से वंचित रह जाता है ।  देखना और देखनेवाला-  जिस जागे चित्त को.. एक अभिन्न प्रवाह से हों, उसे ही सुंदर और मंगल का सत्य दर्शन हो पाता है । - अरुण

घट घट में पानी भरा........

घट घट में पानी भरा, मिट गया रीतापन पानी को कैसे मिले?,  वह जो रीतापन -अरुण ************ शून्यत्व.... मस्तिष्क की ( तुलना घट या घड़े से)  स्थिती है, और मन है मस्तिष्क में  विषयवस्तुओं (तुलना पानी से) का संचार ।  अब सवाल यह है कि..... विषयवस्तु को, या यंू कहें, मन को..... शून्यत्व तक ( तुलना रीतेपन से )  पहंुचना या पाना कैसे संभव है? .... हाँ, संभव है, कैसे?...इसपर सघन चिंतन, या contemplation ज़रूरी है । - अरुण

आसमां और परिंदे

दुनिया में उलझना ही पडे, तो उलझो ऐसे जैसे परिंदों से.............. आसमां उलझे ****** आसमान है सत्य के जैसा अविचल, अकाट्य,अबाधित, जिसे कोई भी फडफडाहट, छटपटाहट,कोलाहल,तनाव, कुछ भी नहीं कर पाता । क्योंकि आसमान इन सबसे होकर गुज़र जाता है । मन का तनाव,अशांति या कोलाहल अपनी आक्रमक ऊर्जा खो बैठता है जब चित्त की प्रशांत अवस्था अपने पूर्ण तरल  स्वरूप में मन से होकर गुज़रती है । - अरुण

एक ऐसी बात.........

एक ऐसी बात है जो ध्यान में उतर आये तो बहुत कुछ कह जाती है बात यंू है-... आदमी अंधेरा भी देखता है और प्रकाश भी और इसीवजह अंधेरे में प्रकाश की और प्रकाश में अंधेरे की कल्पना करता  हुआ अंधेरा या प्रकाश देखता है परंतु प्रकाश का मूल स्रोत - सूर्य, न तो अंधेरा देखता है ओर न ही प्रकाश क्योंकि वही स्वयं प्रकाश है वास्तविकता में जीनेवाले हमसब अज्ञानयुक्त ज्ञान से काम चला रहे हैं मगर सत्यप्रकाशी न तो अज्ञानी है और न ही ज्ञानी क्योंकि वह स्वयं ज्ञान ही है - अरुण

मानवता चहुँओर

मानवता चहुँओर ****************** गंध का काम है फैलना चहंुओर 'अपने पराये' का कोई नही ठोर जिसको सुगंध लगे पास हो आवेगा जिसको सतायेगी दूर भग जावेगा गंध तो गंध है... होती निर्दोष चुनने में दोष है, चुनना बेहोश मानव में मानवता हरपल महकती है करुणा को भाये वो स्वारथ को डसती है - अरुण

इंसान का सिकुड़ता दिल

सच है कि तूफ़ानी हवाएँ क़हर ढातीं हैं तो यह भी सच है कि...क़ुदरत  तो सबकी है.. सो तूफ़ानों को भी...झूमने का मौक़ा देती है क़ुदरत की अनंत असीम दुनिया में  जो भी होना है, होता है और फिर भी.. किसी को किसी से..कोई  शिकायत नहीं होती  और न ही होती है किसी को किसी से कोई उम्मीद कोई भी किसी के आड़े नही आता और न ही कोई जतलाता है...किसी बात की मेहेरबानी क़ुदरत के ज़र्रे ज़र्रे से बहती है करुणाभरी मुहब्बत की धार जहाँ  सबकुछ जीवंत है, जी रहा है ख़ुद के लिए ही नही, सबके लिए इंसान भी इसी लीला का एक हिस्सा है फिर भी उसमें  जागा है ख़ुदगर्ज़ीभरा  एक जेहनी भूत जिसे... कैसे पता हो कि क्या होती  है करुणाभरी मुहब्बत ?.... और इसीलिए शायद जिस जगह है  क़ुदरत की पसरती दरियादिली.... वहीं रहता है इंसान का सिकुड़ता दिल मगर,  इससे भी किसी को कोई शिकायत नही - अरुण

अपनी भीतरी परछाईंयों में लिपटा

अपनी भीतरी परछाईंयों में लिपटा छटपटाता हुआ... दौड़ रहा है आदमी दर दर आज़ादी की भीख मांगते उनसे जो उपजे हैं उसके ही दिमाग़ी आंगन में... उन्हे तरह तरह के नामों से पुकारते हुए... कभी अल्लाह, कभी राम, कभी यशु कभी मार्क्स तो कभी माओ... ऐसा विवश, विकल, निद्रस्थ त्रस्त है अपने अंधत्व से और.. अपने उतने ही अंधे रहनुमाओं से आख़िर क्या करे बेचारा? जब तक वह  भीख मांगते, इच्छाओं की दौड़ लगाते थककर रुक नही जाता... यही सिलसिला सदियों से चलता रहा हैै.. और चलता रहेगा काश ! वह  सारी कोशिशों से थककर रुक जाए ... तो शायद देख पाए कि वह स्वयं रौशनी को रोके खड़ा है... - अरुण

विचार Vs ध्यान

जिसे चलते रहने की आदस सी पड गई हो या यूँ कहें कि चलना जिसका स्वभाव या स्वरूप बन गया हो.. वह कहीं भी ठहर नही पाता । बात मन की हो रही है । भीतर झांककर देखें.. मन विचार पर बैठकर चलता ही रहता है ... विचरता ही रहता है । स्वस्थ नही रह पाता.. यानि स्व स्थान पर बना नहीं रह पाता । जो ध्यानमग्न हो रहा...वही स्वस्थ हो पा रहा । मतलब..चित्त के स्वास्थ्य का रहस्य ध्यान में निहित है, विचार में नही । विचार... किसी पूर्वनियोजित गंतव्य की ओर, पहले से बनी भूमि पर ( स्मृति-अनुभव-ज्ञान) विचरते हुए.. पहुँचने का तरीक़ा है । ध्यान है..अपनी ही जगह ठहरते हुए अपने पूरे के पूरे अपरिचित अंतस्थ पर जाग जाने की घटना जो विचार की अनुपस्थिती में ही संभव हो पाती है । विचार का सहारा है..निद्रा जिसके टूटने पर ही प्रस्फुटित होती है जाग । - अरुण

हल चाहिए या समाधान ?

मानसिक स्तर पर....जो स्थिती चुबती है उसे समस्या मान लिया जाता है। वैसे जिसे समस्या कहा जाये, ऐसी कोई बात  होती ही नही। विचित्र बात तो यह है कि हर समस्या का हल किसी दूसरी समस्या में ही होता है और जब...वह भी चुबने लगती है तब नये हल की खोज  यानि.. नई समस्या की खोज शुरू हो जाती है । तात्पर्य यह कि समस्या का जन्म कभी रुकनेवाला नही । ऐसी समझ जो चुबन को ही जन्मने से रोक दे.... वही है सही छुटकारा जिसे हल नही .. समाधान कहना होगा । - अरुण

भगवद् गीता केवल एक बोध प्रसंग

भगवद् गीता केवल एक बोध प्रसंग ********************************** कई सच्चे, काल्पनिक, पौराणिक या ऐतिहासिक क़िस्से..... सुननेवाले को बहुत कुछ देते, सिखाते या जीवन की सच्चाई पर प्रकाश डालते हुए उसके दिल को छू लेते हैं । बहुत बार ऐसा होता है कि हमारी दिलचस्पी ऐसे क़िस्सों से सीधे सीधे कुछ लेने के बजाय किस्सोंका  बौद्धिक विश्लेषण या अन्वेषण करने में हो जाती है । उपरोक्त तथ्य पर ग़ौर करते यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवद् गीता केवल एक बोध प्रसंग है... सत्य-दर्शन है, नीति का पाठ पढ़ानेवाला....उपदेश ग्रंथ या Role Model नही । - अरुण

दुनियादारी पाप नहीं मगर .....

दुनियादारी पाप नहीं मगर ..... ***************************** दुनियादारी में रस लेना कोई पाप या बुरा काम नहीं है । मगर हाँ, उसके अच्छे बुरे, दोनों तरह के परिणाम स्वीकार्य होने चाहिए । दोनों ही के प्रति सम- स्वीकार भाव हो । जो इस बात में चूक जातें हैं वे अंधी धारणाओं के चक्कर में फँसकर, अंधे उपयों के हाँथों अपना सत्सदविवेक खो बैठते हैं और ऐसा करना निश्चित ही पाप है क्योंकि ऐसी बातें बेहोशी में ही घटती हैं । बेहोशी में होनेवाले कृत्य पाप नहीं तो और क्या हैं ? - अरुण

व्यक्तिगतता Vs सकल मानवता

Clinical या psychological अर्थ में नही, बल्कि व्यावहारिक अर्थ में (मानवी) Mind -इस शब्द में,... brain,mind और उनका bodily manifestation.... इसतरह तीनों की...मिलाजुली आंतरिक  प्रक्रिया समाहित है और इसी अर्थ को अगर आधारस्वरूप स्वीकारा जाए.. तो.. यह कहना ग़लत नहीं कि मानवजगत मनुष्य का नही होता बल्कि उसके जीवंत Mind का ही जगत है । जो बिरले व्यक्ति..सकल मनुष्यजगत का जीवंत Mind होकर जागे, उनकी व्यक्तिगतता अनायास ही ओझल हो गई। ऐसे बुद्धों ने मनुष्य की व्यक्तिगतता या संकीर्णता को हर युग में कारुण्यमयी चुनौती दी है । - अरुण

उपयोग Vs उपवास

मन-बुद्धि का उपयोग करते हुए, अपने 'स्मृति-ज्ञान-अनुभवों' के आधार पर आदमी नये को जानता है । परंतु मन-उपरांत या मनोत्तर अवस्था का बोध, मन-बुद्धि एवं 'स्मृति-ज्ञान-अनुभवों' के उपयोग से नही, उसके उपवास  में ही घट पाएगा । उपवास यानि अवधानपूर्ण सानिध्य - अरुण

पूरे में उपस्थिति

पूरे में उपस्थिति ****************** जो पूरे के पूरे आकाश में उपस्थित है वह आकाश के किसी भी अंश में न उलझते हुए उसे देख सकता है । जो किसी अंश में ही ठहरा है वह पूरे आकाश को देखना तो क्या ?.. उसकी कल्पना तक नहीं कर सकता । यह बात मनुष्य की चेतना से ताल्लुक़ रखती है । - अरुण

प्रधान मंत्री मोदीजी का स्कूली बच्चों से संवाद

शिक्षक दिन के अवसर पर हुआ यह संवाद बहुत ही सहज,सरल, बोझविहीन एवं  बोधप्रद रहा । किसी भी मत या पक्ष विशेष की इसमें गंध न थी । संवाद का आशय एवं तरीक़ा बच्चों के साथ संपर्क बनाता हुआ दिखा, जिसमें सीख तो थी पर किन्हीं ' ऊँचे ऊंचे आदर्शों ' की बकवास नही । मोदीजी ने अपने निजी जीवन की घटनाओं और अनुभवों का जो ज़िक्र किया उसमें कुछ भी ख़ुद की बढ़ाई करने जैसा न था । जो भी कहा गया और सुझाया गया वह स्वाभाविक और व्यावहारिक था, उसमें किसी भी प्रकार का बनावटीपन या डायलाॅगबाजी न थी । देश चाहता है कि मोदी जी के माध्यम से देश की परिस्थिति और मनस्थिती में अनुकूल बदलाव आये । देश को 'अच्छे दिन', 'सुराज्य' जैसी मिथ्या नारेबाज़ी की कोई आवश्यकता नही है, देश को ज़रूरत है सिर्फ समसंख्यकभाव एवं हित की । ज़रूरत है अब  'अल्पसंख्यकी' मजबूरी और 'बहुसंख्यकी' अहंकार से देश को निजात दिलाने की । - अरुण

दिखाई देना और देखी हुई लगना

यह बात कि लाठी से परछाई को हटाया नही जा सकता और न ही परछाई से लाठी को पकड़ा जा सकता है, जिन्होंने अपनी खुली साफ आंखों से  देख ली है, वे इस बात को करने की चेष्टा तो क्या... इस बात को करने  की उन्हे.. कभी इच्छा भी नही होगी । हाँ, मेरे जैसे पढ़-पंडित जिन्हें यह बात (और ऐसी ही कई बातें ) न दिखाई देते हुए भी देखी हुई लग रही हैं,  वे जीवन की ऐसी कई अशक्यताओं की इच्छा संजोये जी रहे हैं । - अरुण

विज्ञान और आध्यात्म का आपसी सहयोग

विज्ञान और आध्यात्म आपस में एक दूसरे से सहयोग करते हुए ही... सृष्टि और उसके जीवन संबंधी सत्य को समझ सकते हैं। विज्ञान के पास सही explanations हैं तो आध्यात्म के पास सही समझ । वैज्ञानिक Explanations के सही आकलन के लिए आध्यात्मिक स्पष्टता चाहिए और आध्यात्मिक स्पष्टता के लिए वैज्ञानिक दृष्टि । विज्ञान.... ज्ञान का (यानि बोध का.. जानकारी का नही) यंत्र है तो ज्ञान या आध्यात्म...... विज्ञान का अंतिम प्रतिफल । वैज्ञानिकों की अहंता (egoism) केवल तथ्य को सामने लाती है....सत्य को नही,  तो दार्शनिकों का गूढगुंजन ( mysticism)  सत्य को केवल विभूतित करता है... अनुभूतित नही । सत्य है मनोत्तर (Beyond mind) स्पष्ट समझ.... जिसके लिए दोनों ही  ज़रूरी हैं.... वैज्ञानिक तथ्यों का स्पर्श और चित्त का उत्कर्ष । - अरुण

Consciousness और Awareness

जागृति' यह शब्द, Awareness  और Consciousness दोनों पर लागू करने का प्रचलन है । परंतु दोनों अंग्रेजी शब्दों का  आशय भिन्न है । Consciousness हमेशा आंशिक होती है ।....आदमी जागता होता है या स्वप्न देखता या गहरी नींद में होता है। जब वह जागता होता है, उसे स्वप्न या नींद की, जब स्वप्न देखता होता है, उसे जाग या नींद की.....कोई ख़बर नहीं होती। इसी तरह,  नींद में वह  बाक़ी  दोनों अनुभूतियों के बारे बेख़बर होता है।  Awareness हमेशा ही जागृत (Being) है । जाग,स्वप्न और नींद- तीनों की उसे ख़बर हो जाती है, इसीलिए आदमी हर स्थिति से गुज़रने के बाद, उस अवस्था से गुजरने को पहचान लेता है, - हाँ मै जाग रहा था, पूरी तरह से सो रहा था, सपने देख रहा था,..... ऐसे वक़्तव्य कर पाता है..... यह सूचित करने के लिए कि... वह Conscious था, Sub-Conscious था, वह Unconscious अवस्था से नज़दीक़ था। बुद्ध लोग जिस Choice less Awareness (निर्विकल्प समाधि) की बात करते है, वह Awareness की वह परिपूर्ण अवस्था है जिसमें Consciousness की आंशिकता ओझल होकर  Awareness के स्वरूप में रूपांतरित हो जाती है। Consciousness द्वैत की त

भँवर

भँवर ******** समुद्र में भँवर की जो अवस्था है वही है व्यक्ति की सकल चेतना-सागर में । भँवर.. सागर से अलग कहाँ होता है, फिर भी शायद उसे लगता होगा कि  वह अपनी ही गति के सहारे अपनी अलग धुरी पर खड़ा हो चक्कर लगा रहा है । सकल चेतना-सागर में व्यक्ति की चेतना.. अलग कहाँ ? व्यक्ति के माध्यम से... चेतना का सकल सागर ही अभिव्यक्त होता रहता है, फिर भी उसे यानि व्यक्ति को लगता है कि उसकी चेतना अलग है क्योंकि वह अपनी अलग धुरी (अहंकार) पर अपनी स्वतंत्र गति (अलग चेतना) के सहारे विचर रहा है । - अरुण                                      

भीतर हिंसा चल रही.....

सब बाहर के क़ायदे,कित हों चुस्त हुशार । भीतर हिंसा चल रही, नफ़रत की तलवार ।। ---- अरुण आदमी अपनी बाहरी.. सामाजिक, राष्ट्रीय, नैतिक, आर्थिक, प्रशासकीय, विकासकीय.... सभी तरह की व्यवस्थाओं को भले कितना ही चुस्त दुरुस्त क्यों न रखे, भीतरी मानसिक दुर्व्यवस्था उसे परास्त करती आयी है और करती रहेगी । जागे हुए लोगों से प्रेरित होकर हज़ारों बार आदमी की जात ने भीतरी रूपांतरण लाना चाहा मगर हर  प्रयास अपने ही बोझ तले मुर्दा बनकर रह गया । बाहर सब ठीकठाक होते दिखा मगर भीतर क़ायम रही आदमी की व्यथा । - अरुण