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Showing posts from April, 2014

इसपर ग़ौर करें

हिटलर केवल इतिहास नही, देश में पलती उस वर्तमान मनोवृत्ति का भी नाम है जिससे बाधित लोग अपने सहनिवासीयों से घृणा करते है.....सिर्फ़ इसलिए क्योंकि उनकी नज़र में वे सहनिवासी पराये धर्म, संस्कृति, प्रांत, भाषावाले हैं। देश का दुर्भाग्य यह है कि ऐसे हिटलरों को भी संवैधानिक दर्जा प्राप्त है और वे भी देश की राजनीति में दखल रखतें हैं - अरुण

एक पत्र मोदीजी के नाम

मोदीजी ! नमस्कार वाराणसी में नामांकन के दिन जो जनसैलाब दिखा उसपर बहसें तो चलती रहेंगी परन्तु इस विशाल जनसमूह को देखने के बाद, आपके प्रति बढती लोकप्रियता, कुतूहल, आपके प्रचार-कौशल्य ... की मिलीजुली वास्तविकता को झुठलाया नहीं जा सकता. यह बात तो अब करीब करीब तय है कि आपका नाम और कांग्रेस का बदनाम, बीजेपी को अच्छी विजय दिलाने जा रहा है. आपका घोष वाक्य है ‘विकास सबके साथ’. पर इस घोष वाक्य के प्रति बीजेपी के भीतर कितनी एक वाक्यता है, यह कहना कठिन है. नये और प्रथम मतदाताओं का रुझान आपके घोषित विकास के एजेंडे की ओर हुआ दिखता है .. परन्तु पुराने कट्टर भाजपाईयों की मनोवृति में अभी भी पुरानापन ही कायम है. वे सब आपमें एक ऐसा अवतार देख रहे है जो शायद सारे पुराने हिसाबों को चुकता करने जा रहा हो. अभी भी वे सब पुराने भाजपाई --‘बदला लेना है’   और ‘पाकिस्तान भेज दिया जाएगा’ --जैसे बयानों पर जमकर तालियाँ पीटतें हैं. ऐसे भड़काऊ भाषण और उसका उजागर समर्थन, ...आपको व्यथित करता   हैं या इससे मन ही मन आप प्रोत्साहित होतें है ? .. यह तो सिर्फ आप ही जानते हैं. सच क्या है यह तो भविष्य ही बतलायेगा... तब

सोचने वाली बात

प्रश्न – जिंदगी की सारी झंझटें क्या हैं? ख़ुशी गम, ‘मेरे-तेरे’ बीच का तनाव, खोने पाने का एहसास, यह सारा झंझटभरा तमाशा आख़िरकार है क्या?   उत्तर – उधर देखो..... आसमान में.. पेड़ों पर .. इधर उधर.. पक्षियों के कई झुण्ड मंडरा रहे है, एक दूसरे से   टकरा रहे हैं, खेल रहे है, चहचहा रहे है. .. क्या यह सारा नजारा, हम अभी बड़े ही शांतिभाव से.. नहीं निहार रहे है ?   प्रश्न कर्ता – हाँ सच है ये   उत्तर कर्ता – अब बस मान लों, उन झुंडो में से एक झुण्ड तुम हो या वह तुम्हारा अपना झुण्ड है ... और फिर उसी दृश्य को दोबारा देखो, तुम्हारे भीतर झंझटों भरे विचार मंडराने लगेंगे. डर, जलन, प्रतिस्पर्धा, आशा निराशा, असुरक्षा के बादल गरजने लगेंगे ........       ... अरुण    

सोचने वाली बात

प्रश्न - उसके कड़वे शब्द मुझपर चोट करते हैं.... मै गुस्से से भर जाता है. आपने कहा था.. ऐसी स्थिति में शांत रहना चाहिए.. पर गुस्सा रोक नहीं पाता,   क्या करूँ? उत्तर – उसके तथाकथित कड़वे शब्द भीतर जिस काल्पनिक दीवाल पर आकर चोट करते हैं, उस दीवाल की काल्पनिकता को देख लो, दीवाल और चोट दोनों ही अपनेआप लुप्त हो जाएँगे ... अरुण

‘वादी’ बनने से बचो

हिन्दूवादी हिन्दू नहीं होता इस्लामवादी मुस्लिम नहीं होता और न धर्म-निरिपेक्षवादी धर्म-निरिपेक्ष होता है - भूक लगे तो अन्न खा लो, प्यास लगे तो पानी पी लों, न अन्नवादी बनो न पानीवादी ‘वादों’ से झगड़े खड़े हो जाते हैं.. भूक-प्यास नहीं मिटती -अरुण       

तथाकथित धार्मिकता सत्य से पलायन

धार्मिकता के नाम पर जो भी कहा सुना और मान लिया गया है, उसी को आधार बनाकर धर्म निभाने वाले तो कई हैं, क्योंकि यही सबसे सरल, सुविधाजनक और निर्बोझ उपाय है. क्योंकि इसमें धर्म सधे न सधे, किसी जिम्मेदारी का बोझ नहीं होता. स्वयं को विनियोजित किए बगैर ही धर्म की पूँजी हात लग गई ऐसा ‘महसूस होने का’ समाधान मिल जाता है. ऐसा ही एक ‘धार्मिक’ किसी सत्य-शोधक के   वचन सुनने पहुँच गया. उस शोधक का प्रत्येक वचन उसे भयभीत करने लगा. भय यह था कि ......उसकी बात स्वीकार्य तो लगती थी पर यदि वह उसे स्वीकारता है तो वह आधार जिसपर वह (‘धार्मिक’) खड़ा है, वह आधार ही ऊसके नीचे से खिसक जाएगा. शोधक के वचनों को झुठलाने की भी उसमे हिम्मत नहीं थी क्योंकि सत्य वचन भीतर उतरते दिख रहे थे. इस संकट से बचने का एक उपाय उसे मिल गया है. अब वह स्वयं को उस सत्यशोधक के वचनों का प्रचारक समझने लगा है. सत्यशोधक को किसी प्रचार या प्रचारक की जरूरत नही. अपने ही अज्ञान से डरे हुए, संभ्रमित लोग अनावधान में प्रचारक बन जाते हैं. वचनों को पूजना, उसके गुणगान करना, सत्य से पलायन का एक प्रतिष्ठित तरीका है. -अरुण