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रुबाई

रुबाई ******** तमन्ना ही वो दुनिया है तमन्ना ही जहाँ चलती तमन्ना अहमियत की होड में, बेसुध हुए चलती तमन्ना ख़्वाहिशों की हर मुराद-ओ-ख़्वाबकी ताक़त सही ताक़त वही जब जिंदगानी होश में चलती - अरुण

रुबाई

रुबाई ********* राह काँटों से भरी है ?....बदलने से... कुछ न होगा पाँव ही तो नर्म हैं.. कर लो कुछ भी...कुछ न होगा राह से तुझको शिकायत या  शिकायत दर्द से है? दर्द को नज़दीक कर लो.. फिर चलो... फिर कुछ न होगा - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** दुनिया में जितने बंदे उतने ही होते आलम आपस में आलमों के रिश्ते बनाते  आलम आलम में आलमों की गिनती गिनी न जाए जिसमें सभी समाए सबका वही है आलम - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** पहुँचने में लगे गर वक़्त तो मुश्किल समझने में लगे गर वक़्त तो  मुश्किल जो पल में पहुँच जाता... समझ जाता है समझ उसकी* बड़ी अद्भुत निराली, पहुँचना मुश्किल अरुण उसकी = दिव्य दृष्टि वाला **********************************************

रुबाई

रुबाई ****** ख़्वाबों के दीप भीतर इक रौशनीसी फैले इस रौशनी में चलते दुनिया के सारे खेले करवट बदलती भीतर जबभी कभी हक़ीक़त कपती है रौशनी....उठते हैं जलजले - अरुण

रुबाई

रुबाई ****** वक़्त जो बनाये इंसा की मुराद मुराद बने बिगड़े करे बरबाद वक़्त ही है इंसा का दुश्मन ज़हन इंसा का करे जिसका इजाद - अरुण

रुबाई

रुबाई ********* जबतक चले ये साँस जीता हूँ मर रहा पल पल लहर है मेरी सरिता सा बह रहा फिर भी जनम मरण की चर्चा का शौक़ है मुझसे बड़ा न मूरख दुनिया में पल रहा अरुण

रुबाई

रुबाई ******* अपने जज़्बात और ख्यालात को कब भूलोगे सारे रिश्तें हैं हक़ीक़त नही........ कब भूलोगे स्क्रीन पर आग देख उसको बुझानेवालों ये सिनेमा है.. हक़ीक़त नही ....... कब भूलोगे - अरुण

परिक्षा मन की

परिक्षा मन की ************** जब वस्तु आग के संपर्क में हो  तभी पता चलता है कि वह ज्वलनशील है अथवा नही, तापधारक है अथवा नही । समाज संबंधों में रहकर ही जाना जा सकता है कि मन प्रापंचिक है अथवा नही। - अरुण

धर्मांतरण

धर्मांतरण ************ धरम की होड में रहकर इंसा बौराया है माने कि धरम भी उसकी कुई  माया है धरम की गोद में...मगर उसको ही बेच रहा है कैसी तिजारत ये.......कैसा सरमाया है? अरुण

रुबाई

रुबाई ******* उगना है किसतरह सिखलाया ना गया बहना है किसतरह बतलाया ना गया क़ुदरत में बस इशारे नक्शों की क्या वजह भीतर की रौशनी को झुठलाया ना गया - अरुण

रुबाई

रुबाई ************ माया नही है दुनिया...... मिथ्या नही जगत मिथ्या है मन की खिड़की भ्रमराए जो जगत तनमन को जोड़कर जो देखे असीम  आलम उसकी खरी है दुनिया उसका खरा जगत - अरुण

रुबाई

रुबाई ******** चलिए  इसतरह के.........न हो मंज़िल कोई हवा चले, नदी बहे............. न मंज़िल कोई चाहत की जिंदगी में....... मंज़िलें ही मंज़िलें क़ुदरत के हर सफ़र की....... न मंज़िल कोई अरुण

कुछेक पेश हैं

कुछ शेर पेश हैं **************** अबतक तो माज़ी* ही है ज़िंदा मै हूँ...तो कहाँ ?... न ख़बर मुझको ------------------------------ कब आदमी की आदमी से होगी मुलाक़ात ? अभी बस मिल रहे हैं..आपसी तआरुफ़* ----------------------------------------- बड़ा मुश्किल गुज़रना आलमी रिश्तों की गलियों से कभी वे फूल जैसे तो कभी काँटों से भी बदतर* ----------------------------------------------- माज़ी = गुज़रा वक़्त,  तआरुफ़ = परिचय, बदतर = बहुत ख़राब अरुण

दो रुबाई

दो रुबाई आज के लिए ********************** चुटकी की ही पकड में...फूला हुआ गुबारा पसरा है वक़्त उसमें दुनिया का बन नज़ारा अक्सर ग़ुबार में ही इंसा भटक रहा है चुटकी से हट गया है इंसा का ध्यान सारा **************************************** नींद में गड्डी चलाये ही चला जाता है बिन टकराए रास्तों से गुज़र जाता है फिरभी अन्जाम...हादसा ही न बच पाये कुई कुई घायल नही.. ऐसा न नज़र आता है ************************************ - अरुण

दो रुबाई आज के लिए

दो रुबाई आज के लिए *********************** आइना हो साफ़ आँखें साफ़ हों बस हक़ीक़त से तभी इंसाफ़ हो एक नन्हें की तरह देखा करो सीधा पहलू हो असल दरयाफ़* हो दरयाफ़ = दरयाफ़्त = खोजबीन ********************************* बेखुदी गर... जिंदगी किस काम की ? बेरुहानी बंदगी किस काम की ? खोज का सामान जब ज़िंदा नही जुस्तजू-ए- जिंदगी किस काम की ? जुस्तजू-ए- जिंदगी= जिंदगी की खोज ********************************* अरुण

दो रुबाई आज के लिए

दो रुबाई आज के लिए *********************** फलसफों में बहकना बेकार है मज़हबी हर सूचना बेकार है जिंदगी को ज़िंदा रहकर देखिए उसके बाबत सोचना बेकार है ************************************* पेड़ है... नीचे परछाई है समझती.. खुदही उभर आई है सोचे...पेड़ के बग़ैर भी वह ज़िंदा रहे सोच ऐसी ही....... इंसा में भी बन आई है ********************************** - अरुण

दो रुबाई आज के लिए

दो रुबाई आज के लिए *********************** नही ख्यालात-ओ-जज़्बात हटेंगे सर से जंग जारी रहे बाहर.. तो रहे भीतर से जबतलक एक भी चिंगारी रहे जंगल में नही आज़ाद कुई पत्ता...आग के डर से ************************************* मंदिरों और मस्जिदों के शिखर फ़लकों पर मज़हबी शोर के हर दौर उठे फ़लकों पर कार के पुर्ज़ों  की दुकानें कई हैं लेकिन एक भी दिखती नही कार कहीं सड़कों पर *************************************  फ़लकों पर= आकाश में - अरुण

आज की ताज़ा गजल

आज की यह ताज़ा ग़ज़ल ************************** हज़ारों हैं ...करोड़ों जीव हैं....  पर  आदमी जो समझता है..ये दुनिया है....तो केवल आदमी ही कहीं से भी कहीं पर .....जा के बसता है परिंदा मगर पाबंद कोई है..........तो कोई  आदमी ही जभी हो प्यास पानी खोज लेना.. जानती क़ुदरत इकट्ठा करके रखने की हवस.......तो आदमी ही बचाना ख़ुद को उलझन से सहजता है यही लेकिन फँसाता खुद को....बुनता जाल अपना आदमी ही बदन हर जीव को देता ज़हन..... जीवन चलाने को चलाता है ज़हन केवल .........तो केवल आदमी ही खुदा से बच निकलने की ....कई तरकीब का माहिर खुदा के नाम से जीता ..... .....तो केवल आदमी ही - अरुण

एक रुबाई

एक रुबाई ************ जी रहा उसका जनम होता नही मर गया उसका मरण होता नही 'लम्हे लम्हे में मरे......जीता वही' फ़लसफ़ा सबको हज़म होता नही ******************************* - अरुण

दो रुबाई आज के लिए

दो रुबाई आज के लिए ********************* जाना नही.. जहान से क्या रिश्ता अपना समझा के अलहिदा ही है...रास्ता अपना साहिल पे खड़ा सोच रहा... पानी में खड़ा हूँ लहरों से पूछता हूँ.. पता अपना *********************************** रात दिन दोनों ही होते .........लाजवाब जिंदगी की हर अदा है ........ बेहिजाब जो भी है सब ठीक ही.. रब के लिए अच्छा-बुरा तो आदमी का है हिसाब ******************************** - अरुण

एक गजल रुहानी

एक गजल - रुहानी ********************* क्योंकर सज़ा रहा अरे परछाईयों के घर जागोगे जान जाओगे.... सपने हैं बेअसर *********************************** कुछ साँस ले रहे हैं ......ज़माने के वास्ते हम मरे जा रहे हैं.. अपनी ही फ़िक्र कर ********************************** ग़ैरों की शक्ल में भी जो ख़ुद को देखता ग़ैरों को जान बख्शे अपनी निकालकर ********************************** उस साधुताको... कोई नही पूछता यहाँ जिस साधुता का मोल नही राजद्वार पर ********************************** जिसके लिए बदन हो किराये का इक मकान उसको न चाहिए कुई चादर मज़ार पर **************************** - अरुण

दो रुबाई आज के लिए

दिल बना ख़तरों का अरमान ही ताक़त से भर आये... क़ुर्बान ही न किनारा न सहारा न मंज़िल कोई काम आये उसके..मयन तूफ़ान ही मयन = तत्क्षण ***************************************** लिए चाहत उजाले की संवरता है अंधेरा पता किसको कहाँ से लौट आएगा सवेरा ? प्रतिक्षा है ये तीखी रात बीते बात बीते जला आख़िर अंधेरा ही जगा सच्चा सवेरा ******************************************* - अरुण

दो रुबाई आज के लिए

दो रुबाई आज के लिए ********************* आत्म-बल का व्यर्थ में गुणगान करता है परमात्म-बल ही सृष्टि का सब काम करता है काम करना शक्ति का ही काम है.. यारों! अपनी कहके उसको... अपना नाम करता है ***************************************** मँझधार से जो भागे, समझे न जीस्ते क़ुदरत ढूँढे जो बस किनारे, डरना ही उसकी फ़ित्रत सपने गुलों के हों तो काँटों से कैसा डरना? जज़्बा-ए-दोस्ती तो काँटों गुलों की इशरत जीस्त =जीवन, फित्रत = स्वभाव, इशरत= आनंद ******************************************* - अरुण

दो रुबाई आज के लिए

दो रुबाई आज के लिए ********************* पांव के नीचे जमीं है उसको देखा ही नही दर्द के भीतर उतरकर कभ्भी देखा ही नही मै तो दौडे जा रहा हूँ वक्त का रहगीर बन हर कदम आलम मुसल्लम मैने देखा ही नही आलम मुसल्लम= सकल जगत ************************************** उसको... न देखा और दिखलाया जा सके उसके ठिकाने कितने?... ना  गिना जा सके जो दिख सके उसी को गहरी नज़र से देख शायद, वहीं से उस्से कुई बात बन सके ************************************* - अरुण

दो रुबाई आज के लिए

कहते हैं- लफ़्ज़ों में कोई ज्ञान नही है सुना है कि.... रूहे आलम के सामने देह का कोई मान नही है पर ख़्याल रहे कि धरती नही होती तो आसमां नही दिखता इस पूरी हक़ीक़त का हमें ध्यान नही है ****************************************** सब जिंदगी और मौत के दरमियाँ उलझे शामे ग़म को सुनहरे अरमां उलझे लाज़मी गर उलझना.. बार बा उलझो उलझो ऐसे कि परिंदों से आसमां उलझे ************************************************* - अरुण

तीन रुबाई आज के लिए

पत्तों को पेड़ का तो कोई पता नही लहरों को समंदर का कोई पता नही पानी में बुलबुलों को हमने दिया वजूद पानी को बुलबुलों का कोई पता नही ************************************** जिसमें यह वक़्त गुज़रता... ऐसी उलझन जिससे दिल बैठ ही जाता.... ऐसी उलझन उलझने लाख...उलझने ही जिंदगी का सबब जो स्वयं सुलझा हुआ, उसको ना कोई उलझन ****************************************** जाननेवाले ने नही जाना... 'जानना' क्या है? जाना है सभी, तो फिर जानना क्या है? जानना तो यहाँ कुछ भी नही.... यारों ! 'जाननेवाला' ही...न हो, तो जानना क्या है? *************************************** - अरुण

दो रुबाई

 अंधेरा ही है जागीर-ओ-वसीयत है अंधेरे से ही इंसा की बनी नीयत है अंधेरे ने उजाले को नही देखा कभी बेअसर रह गया इंसान, ये हक़ीक़त है ********************************* बंद आँखों से टटोलो तो खोज बाकी है बंद आँखों से पिलाये अजबसा साक़ी है? ये तजुर्बे ......जो आतें हैं निकल जाते हैं एक भी ऐसा नही..जिसपे नज़र जाती है ************************************ - अरुण

दो रुबाई आज के लिए

अज्ञान में पड़ा हूँ...इंसा को रंज जो है करुणा तो फैलती है.. इंसा ही तंग जो है सदियों से खोज जारी.. पर रौशनी न आये चर्चा बहस.. फ़िज़ूल .. दरवाज़ा बंद जो है *************************************** थोड़ा ही ज्ञान.. इतराते बहोत रस तो नदारद.. चबाते बहोत न सोता, न नदिया, न दरिया ही देखा मगर पार जाने की बातें बहोत *************************************** - अरुण

दो रुबाई आज के लिए

मेरा..मेरा- कहना काम आया नही पकडे रख्खा कुछ भी दे पाया नही बेदरोदीवारसी दुनिया जिसे कोई दुश्मन.. कोई हमसाया नही ******************************* कहना उन्हें फ़िज़ूल.. सुनना जिन्हें सज़ा है वैसे भी कह के देखा जैसे उन्हें रजा है लफ़्ज़ों की कश्तियों से बातें पहुँच न पाती एकसाथ डूबने का कुछ और ही मज़ा है *********************************** - अरुण

आज की तीन रुबाई

आज की तीन रुबाई ********************* 'मै' पुराना...लग रहा फिर से जवां याद में ही ख्वाब होता है रवां 'मै' धुआँ..इसके अलावा कुछ नही जल गयी जो जिंदगी उसका धुआँ ******************************* बेलफ्ज् ख़ालीपन था.. पूरा भर दिया जो नया देखा.. ख़याली  कर दिया सूरत-ए-लम्हात देखी ही नही दस्तक-ए-लम्हात से दिल भर दिया *********************************** हम किसी भी हाल में .. भरपूर होते हम किसी के साथ भी...खुशनूर होते ये अकेलापन हमें महफ़ूज़ लगता जोड़ क़ुदरत के..न दिल से दूर होते ******************************* - अरुण

ज़िंदगी

ज़िंदगी ------------ ज़िंदगी छोटी.... बहुत छोटी..... बहुत छोटी है ना समझ पाए ज़ेहन....जिसकी पकड मोटी है ओंकार कहो..अल्लाह कहो... या गाॅड कहो..... जो नाम कहो हर नाम की चौडाई..... बहुत होती है ना समझ पाए ज़ेहन....जिसकी पकड मोटी है चिंटी के कदम... रफ्तारे अहं....धड़कन की रिदम .... हो कोई नटन भीतर पल के... इक उम्रे रवां होती है ना समझ पाए ज़ेहन....जिसकी पकड मोटी है सूरज की किरन....सामाजिक मन....ख़ामोश श्वसन....हो कोई हरम हर पेहरन में.....इक रूह बसी होती है ना समझ पाए ज़ेहन....जिसकी पकड मोटी है ज़िंदगी छोटी.... बहुत छोटी..... बहुत छोटी है ना समझ पाए ज़ेहन....जिसकी पकड मोटी है - अरुण

सच्चाई अकेलेपनकी

सच्चाई अकेलेपनकी ********************** आदमी अकेला आता है, अकेला ही जाता है।इस आने और जाने के बीच के दिनों में, भीड़ की ज़िंदगी जीता है। भीड़ ने रची हुई ज़िंदगी की गिरफ़्त में रहकर वह अकेलेपन की सच्चाई को लाख कोशिशों के बावजूद भी महसूस नही कर पाता। आदमी के सारे फ़लसफ़े (Philosophies) इसी अकेलेपन की चर्चा करते हैं। मगर वही इसे महसूस कर पाते हैं जो भीड़ की ही नही, सारे फलसफों की गिरफ़्त से भी... दूर निकल जातें हैं। - अरुण

एक गजलनुमा नज़्म

मालूम हो सुबह को... कहाँ पे आना है अंधेरे में दिया.. जलाए रखिये ******** गर आँखों को परछाइयाँ सताने लगें रोशनी पे आँखें .... गडाए रखिये *************** आसमां भी उसमें सिमटना चाहेगा मुहब्बत को ऊपर.... उठाए रखिये ***************** किनारे भी टूटेंगे किसी रोज़ आख़िर तूफ़ाँ को अपना .... बनाए रखिये ****************** आसमां से जो टूटा.. नही लौटा तारा हर मौज को.. समंदर में मिलाए रखिये ********************************** - अरुण

रिश्ते ही जोड़ते हैं.. रिश्ते ही बाँटते हैं

रिश्ते नातों के मकड़जाल में हरेक कोई उलझा हुआ है।इस मकड़जाल के किसी एक हिस्से में अगर कोई अच्छी-बुरी घटना या बदलाव हो जाए तो उसका असर मकड़जाल के किसी दूसरे हिस्से के नाते संबंधों पर हुए बग़ैर नही रहता।दो सगे भाईयों में घटे वैमनस्य का असर बड़ा दूरगामी होता है। उन सगे भाईयों के चचेरे, ममेरे, फुफेरे.... भाई और बहनें भी पक्षविपक्ष की छूत एवं ग़लतफ़हमियों के असर में आकर, अलग अलग खेमों में बँट जाते है। रिश्ते ही जोड़ते हैं.. रिश्ते ही बाँटते हैं। क्या रिश्तों की निरपेक्षता एवं स्वास्थ्य बनाए रखना बहुत मुश्किल है? - अरुण

स्मृति-अज्ञ और स्थितप्रज्ञ

हम सभी प्रायः स्मृति में उलझा हुआ जीवन जी रहे हैं यानि अपनी मौलिकतासे..... मूल-स्थिती से अपना ध्यान हटाये हुए हैं, स्मृति-अज्ञ हैं।अपनी मौलिक अवस्था पर जागा हुआ आदमी, आत्मस्थ यानि स्थितप्रज्ञ होता है। ऊपर लिखा जीवन-तथ्य...अवधानमय ध्यान को ही उजागर हो  सकता है, स्मृतिबद्ध ज्ञान को नही। - अरुण

निराकार ही साकार जैसा

निराकार ही साकार जैसा ************************** कमजोर और चौखट में उलझी आँखो से देखते हो इसीलिए दुनिया नजारा बनकर दिख रही है चौकट न हो और आँखे भी अगर सबओर का सबकुछ एक ही बार में देख सकेंगी तो नजर आनेवाली यह दुनिया अदृष्य हो जाएगी - अरुण

धर्म

धर्म ****** हमें हमारे सकल आवरण के साथ जो धारण करता है - वह है धर्म हम जिसे धर्म समझकर धारण और ग्रहण करते हैं - वह धर्म नही तथाकथित धार्मिक कर्म है - अरुण

संस्कारों की मिर्ची

संस्कारों की मिर्ची ******************* परिवार और समाज आदमी का है मित्र भी और शत्रु भी आदमी को समाज के अनुकूल बनाता है इस लिहाज़ से है...मित्र पर सच जानने के मार्ग में रुकावट बनता है इस हिसाब से है.... शत्रु बचपन में ही संस्कारों की मिर्च खिला दी जाती है मिर्च से जिसका मुँह जला हो वह तो पानी ही चाहेगा मीठा छोड दूसरे किसी स्वाद की कल्पना भी नही कर सकता सच वही जान सकेगा जिसके चुनाओं पर किसी का कोई भी बंधन न हो संस्कार आदमी को बाँधे रखते हैं, चुनाव की आज़ादी से वंचित रखते हैं - अरुण

'प्यास' और 'पानी'

'प्यास' और 'पानी' ******************* 'प्यास' लगती ही न हो, तो 'पानी' क्यों खोजे आदमी ? आज की (शायद हर वक़्त की ) शिक्षा पद्धति 'पानी' तो उपलब्ध करा देती है परंतु 'प्यास' नही जगाती - अरुण

ईश्वर है या नही ? .....

ईश्वर है या नही ?... ************************** ईश्वर है या नही ?-   यह बात समझ में न आयी है हाँ, यह निश्चित है कि  'मै' नही हूँ जो है वह है ..सिर्फ़ स्मृति का एक जीता बवंडर जिसे यह बंदा 'मै' कहता है - बस, यही बात है जो साफ साफ़ नज़र  में आई है - अरुण

समय है.. एक का एक...eternal ..... सनातन

समय है ...अविरत एक का एक..eternal....सनातन ... ************************************************* जहाँपर.. कालनिद्रस्थ आदमी का .....'भूत' (past) सर उठाता है....उसके 'भूत' को लगता है वह है  ...'वर्तमान' । जब 'भूत'.. स्वयं में झाँकता है.. उसे लगता है .. वह है...'अतीत' । जब 'भूत' स्वयं में बदलाव  देखता है.. तब उसे  वह ..'भविष्य' जैसा लगता है । केवल कालजागृत के लिए ही समय है ..अविरत एक का एक...eternal, सनातन-वर्तमान - अरुण

ऊर्जा - मायावी भी.. सात्विक भी

ऊर्जा के अदृश्य गुबारे के बाहर-भीतर स्मृतिकी आभा विचर रही है ।स्मृति-आभा ऊर्जा के प्रभाव बल पर, हर क्षण नये आकार में ढलती बनती विचर रही है । इस स्मृति-आभा में भ्रम निर्माण की अद्भुत शक्ति है । इस आभा के क्षण क्षण टूटते जुड़ते माया का विचार-विश्व सृजित हो रहा है, ऊर्जा प्रवाह पर स्मृति के इस अविरत बिंबन के कारण, बिंबन को विचार-गति का अनुभव हो रहा है । गति से विचार और विचारक का भ्रममूलक द्वैत या division उभर रहा है । इसतरह, ऊर्जा बिंबन के प्रभाव में मायावी हो जाती है, हालाँकि , बिंबन न हो तो यह सदैव सात्विक ही है - अरुण

जिंदगी जंग है ..लढोगे तो जीतोगे'- यह बात सर्वत्र लागू नही ।

हमने सीखा है बचपन से कि 'जिंदगी जंग है ..लढोगे तो जीतोगे' परंतु जंग किसे कहें या समझे? - यह जानने में भूल की है ।इसीलिए शायद हम बाधाओं को हटाते समय... नये झगडे मोल ले रहे हैं । संवाद के लिए नही, बल्कि संघर्ष के लिए आमने सामने खड़े हैं.... अपनों की सुविधा के लिए नही, बल्कि परायों को परास्त करने इकट्ठा हो रहे हैं । जंगलों से प्राण सेवन करने के बजाय,  उन्हें अड़चन समझकर काट रहे हैं । बाहरी संघर्ष अलग हैं.... तो भीतरी बिलकुल ही भिन्न । अहंकार से फली सारी बीमारियों से झगड़ने में बाहरी तरीक़े काम नहीं आते । बाहरी तरीके बाधाओं को नष्ट करते या उखाड़ फेंकते हैं । भीतरी तरीक़ा... अहंकार से फली बीमारी को स्पष्ट-समझ की आँखों  से निहारते,  उसे उसके स्थान पर ही विलोपित करता हैं, उससे झगड़ता नही । अंधेरे से झगड़ना नही है, प्रकाश को ले आना यानि समझ को जगाना है, ..बस । - अरुण

इसे ग़ौर से पढ़ें और विचारें

 “ऊंचाई नापनी हो तो किसी छोटी-ऊंची चीजका इस्तेमाल होता है, मतलब ऊंचाई ही नापती है ऊंचाई को, इसीतरह अन्तस्थ के या भीतरी दृश्य को देखते समय, अन्तस्थ की प्रतिमा या दृश्य (अहं/मै) ही उसे देखता है” - इस तथ्य को जो ‘देखने’ के दौरान देख सके उसका देखना गुणात्मक रूप से भिन्न होगा - अरुण

अभी इसी साँस में .....

अभी इसी साँस में जी रहा है...अस्तित्व असली भी और नक़ली भी असली की ख़बर नही नक़ली ही सच जैसा असली की ऊर्जा से नकली में बल बैठा इसी बल पर दुनियादारी चल रही है बाती जले बीच में..इर्द गिर्द परछाई हिल रही है साँस को परछाई का ख़्याल है पर जलती बाती पर ध्यान ठहरता है कभीकदा ही - अरुण

न कोई तमाशा है, न कोई तमाशाई

अस्तित्व  ही जीता है, उसके जीने में ही करना, होना जैसी सारी कृतियाँ और क्रियाएँ समाहित हैं इसके अलावा यहाँ न कोई कर्ता है, न कोई कर्म है, न है कोई तमाशा और न ही है कोई तमाशाई - अरुण

मर चुका ही डर रहा है...

जो मर चुके क्षण याद उनकी आज ज़िंदा है याद को ही सौंप रखी ज़िंदगी की बागडोर...... अब ज़िंदगी तो मौत के ही हांथ ज़िंदा है फिर भी डर है मौत ना जाए निगल जिंदगी के बचे पल जिन पलों मे मौत की ही साँस ज़िंदा है - अरुण

एक दोहा

एक दोहा ********** अगला कुई न जानता, अगले में .....का होय? यह गुर जो भी जान ले, बिना किसी डर सोय - अरुण  जो भी लोग अगला या भविष्य को जानने की बाधा से ग्रस्त हैं, वे नादान हैं। भविष्य किसी को भी पता नहीं होता, न पता हो सकता है । क्योंकि समय या काल एक मनोवैज्ञानिक उत्पाद है, अस्तित्वगत तथ्य नही। - अरुण

राजनीति का अखाड़ा

राजनीति का अखाड़ा ********************* बिछी हुई मिट्टी को रौंदते हुए, उसमें अपने पैर जमाते, उसकी मुलायमियत का फ़ायदा उठाते... अपनेको चोट से बचाते हुए, कोई भी पहलवान  अखाड़े में कुश्ती के दाँवपेंच खेलता रहता हैं। सामनेवाले को चित करते हुए, उसे धूल चटाना, उसके खेल का पहला मक्सद होता है । इस लोकतांत्रिक देश के अखाड़े में राजनैतिक उम्मीदवार और  पार्टियाँ यही खेल चुनाव आयोग की देखरेख में बड़ी ही कुशलता से खेल रही हैं । पहलवान, कुश्ती, दाँवपेंच, अखाड़ा, चित करना, पटकनी देना, धूल चटाना..... इन शब्दों या उपमाओं का तो औचित्य, राजनीति के संदर्भ में, आसानी से समझ आ जाता है । पर सवाल उठेगा.... मिट्टी की उपमा किसके लिए ? मिट्टी ... यानि यह भोलीभाली, मुलायम, सभी को बर्दाश्त करनेवाली, दुष्टों को भी पांव जमाने का मौका देनेवाली.... भारत की सहिष्णु जनता । चुनाव के दौरान यह जनता पार्टिंयों के हर प्रचारी सचझूठ को सुन लेती हैं, उनके बहकावी आश्वासनों के स्वागत के लिए तैयार रहती है... भावुकता की जादुई  हवा अगर चल पड़े तो बहक भी जाती है । पार्टीयों के  आपसी गालीगलोच से अपना मन बहला लेती हैं। यह आपसी &

सबका अंतिम सत्य तो एक ही है

दौड़ती रेलगाड़ी का एक डिब्बा, भीतर, यात्री चल फिर रहे हैं ... डिब्बे के एक छोर से दूसरे छोर के बीच, दोनों तरफ की दीवारों के बीच...... उनके चलने-फिरने में भी कोई न कोई गति लगी हुई है,  किसी न किसी दिशा का भास है कहने का मतलब... डिब्बे के भीतर चलते फिरते लोगों से पूछें तो हर कोई अपनी भिन्न दिशा और गति की बात करेगा जबकि सच यह है कि.. सभी यात्री दौड़ती रेल की गति और दिशा से बंधे है उनकी अपनी गति और दिशा...एक भ्रम मात्र है सभी का अंतिम सत्य तो एक ही है भले ही हरेक का आभास भिन्न क्यों न हो -  अरुण

मुक्ति

पिंजड़े का पंछी खुले आकाश में आते मुक्ति महसूस करे यह तो ठीक ही है परन्तु अगर पिंजड़े का दरवाजा खुला होते हुए भी वह पिंजड़े में ही बना रहे और आजादी के लिए प्रार्थना करता रहे तो मतलब साफ है.... आजादी के द्वार के प्रति वह सजग नही है वह कैद है अपनी ही सोच में - अरुण

साँस

साँस ******** जीने जिलाने की ही दुनिया हो तो बस,  हलकी सी  साँस बहुत है दुनिया मिलने मिलाने की हो तो फिर हर साँस के साथ.. पास और दूर वाले रिश्तों की निर्भरता जुड जाती है..... पाने-खोने, कमाने-गँवाने वाली दुनिया में जी रही साँसों से हिसाबों की भारी भारी तख़्तियाँ लटक कर साँसों को बोझिल बना देतीं हैं ऐसे बोझिल साँस वालों को ही ' आलोम विलोम' वाले आसानी से अपना ग्राहक बना लेते हैं पर कुछ नही होता... कोई नही बताता ऐंसों को कि अपनी साँसों से बस रिश्तों की निर्भरता हटाओ हिसाबी तख़्तियाँ उतार लो... साँस फिर से हलकी होकर बहने लगेगी... एक मधुर मृदुल पवन-झोंके की तरह - अरुण

संस्कारों से हो रही घुटन की आवाज़

क्यों न की मेरी अंतिम यात्रा की... शुरुवात उसी दिन जिस दिन मैं इस धरती पर आया उसी दिन से तो शुरू कर दिया आपने गला घोटना मेरी कुदरती आजादी का उसी दिन तो शुरू किया आपने मेरे निरंग श्वांसों में अपनी जूठी साँस भरकर उसमें अपना जहर उतारना उसी दिन से तो सही माने में मेरी क़ैद शुरू हुई, आपके विचारों, विश्वासों और आस्थाओं ने मेरी सोच को रंगते हुए मुझे बड़ा किया...मुझे पाला पोसा बढ़ाया.... आप जैसे 'अच्छे-भलों' के बीच में लाया आपने ज अच्छा समझा वैसा ही जीना सिखाया पर कभी न समझा कि आप फूल को उसकी अपनी ज़िंदगी नही समाज को जो भाए ,ऐसी मौत दे रहे हो, मै तो बस सामाजिक प्रतिष्ठा और उपयोग का सामान बनकर रह गया, अब पहुँचने जा रहा हूँ अंतिम छोर पर... उस राह के जिसका आरम्भ ही कभी न हो पाया अरुण

निजता का भावभ्रम ही सारी मनोवैज्ञानिक परेशानियों का मूल

जीव के जन्म का जीवशास्त्रीय अर्थ है, माँ की कोख से अलग हुए एक स्वतंत्र जीव का अवतरण व उसके जीवन की शुरुवात। यह शुरुवाती जीवनस्वरूप ही जीव का मूल जीवन स्वरूप है। बात यदि मनुष्य के संदर्भ में की जाए तो.....मनुष्य-जन्म से कुछ अवधि या समय तक, मनुष्य में, मनुष्य और पूरी मानवता के बीच... भिन्नता का, कोई भाव रहता ही नही । बाद में, सामाजिकता का स्पर्श ही मनुष्य में भिन्नता जगाते हुए निजता का भावभ्रम सजीव कर देता है।   यहीं से, निजता या द्वैतभाव या individuality की परंपरा या अादत हर व्यक्ति की मानसिकता को जकड़ लेती है । यह निजता सामाजिक जीवनयापन के लिए एक सुविधा भी है और कष्ट या suffering भी, सुरक्षा की माँग भी है और असुरक्षा का भय भी । जीवन के सारे मानसिक संघर्षों और परेशानियों का जन्म इसी निजता या भिन्नता के भाव से होता है । 'जागे हुओं' ने कहा है ...... गहन आत्मावलोकन में निजता के ओझल होते ही निजताजन्य वेदनाओं की स्मृति भी ग़ायब हो जाती है, और पुनः अवतरित होता/होती है... मूल जीवन-स्वरूप या वह मूल सकल प्रेम-अवस्था। अरुण बात को इससे अधिक सरल नहीं बना पा रहा, समझ आ जाए तो ठीक, न आए

स्वभाव (Nature) और संस्कार (Nurture)

हम स्वभाव (Nature) और संस्कारों (Nurture) के मिलेजुले रूप है । ध्यान.... दोनों को अलग अलग कर देख पाता है । मन..चूँकि संस्कारों के प्रभाव में होता है, स्वभाव को देख पाने में असमर्थ है । ध्यान... चूँकि स्वभाव में स्थिर है, उसके द्वारा संस्कारों को स्पष्टतः देखे जाते ही, संस्कारों का प्रभाव या बंधन क्षीण हो जाता है । आसमां को मुठ्ठी पकड़ नही पाती, वैसेही, स्वभाव.. पकड के बाहर है । संस्कार तो, पकड़ का ही दूसरा नाम है । -अरुण

एक चिंतन

एक चिंतन ************** लोगों को सुखी कैसे रख्खा जाए? -------इसपर सभी समाज एवं अर्थ विचारक सोचते रहते हैं । लोगों के मन में सुख दुःख सम्बन्धी भावनाएं कब और क्यों उभरती है? -------- इसका उत्तर मनोवैज्ञानिक देता है । मानवमात्र के  सुख दुःख को लेकर किसने क्या कहा? -----------इसे दार्शनिक खोजता एवं उसका विवेचन करता है । सुख दुःख का परमअस्तित्व में क्या कोई स्थान है ? ----------इसपर, रहस्य-दृष्टा अपने को एवं अपने समाजी संबधो को               प्रति पल पूरी तरह निहारते हुए, सुखदुख के मिथ्यापन को भी देखता रहता है । अरुण

प्रपंच मन में है, ध्यान में नही

सिनेमा हाल में मूव्ही चल रही है। बालकनी के ऊपर कहीं एक झरोखा है जहाँ से प्रकाश का फोकस सामने के परदे पर गिरते ही चित्र चल पड़ता है, हिलती डोलती प्रतिमाओं को सजीव बना देता है। हमें इन चल- चित्रों में कोई स्टोरी दिख रही है। हम उस स्टोरी में रमें हुए हैं। परन्तु जैसे ही ध्यान, झरोखे से आते प्रकाश के फोकस पर स्थिर हुआ, सारी स्टोरी खो गई। केवल प्रकाश ही प्रकाश , न कोई स्टोरी है, न कोई चरित्र है, न घटना, न वेदना, न खुशी, कुछ भी नही। ये सारा प्रपंच परदे पर है, प्रकाश में नही। संसार रुपी इस खेल में भी, प्रपंच मन में है, ध्यान में नही। - अरुण

स्व है दुनिया, दुनिया ही है स्व

स्व ही दुनिया, दुनिया ही स्व *************************** यह ५ फ़ुट का देह, इसके भीतर चेतनेवाली आग, क्या इतनी ही है मेरी दुनिया? क्या इतना क्षुद्र अस्तित्व ही मेरा अपना है? क्या मेरा वास्ता या सरोकार इसी 'अति-संकुचित' आत्म से है? फिर वह जो बाहर मुझे दिखाई पड़ती है, मुझे रिझाती है, मुझे डराती है, मुझे संभालती और मुझसे टकराती भी है, जिसे मै दुनिया कहता हूँ, वह क्या है? क्या वह मेरा आत्म नही है? क्या वह मुझसे जुदा है? जब अचानक मेरी गहनतम, ऊँची और व्यापक दृष्टि उद्घाटित होती है... तब मैं देखता हँू .....मुझमें और दुनिया के भीतर संचारता हुआ मनोरसायन तो एक ही है, केवल एक ही नही....वह सारा का सारा एक दूसरे से गुजरता एक संलग्न समग्र प्रवाह बना बह रहा है । मेरे भीतर बसा भय, क्रोध, ईर्षा, द्वेष, लालसा, महत्व की आकांक्षा और संघर्ष...सबकुछ वही...दुनिया के मैदान में ... मारकाट, युद्ध, अत्याचार, बलात्कार, भ्रष्टाचार, स्वार्थवाद  (सभी वाद) और ऐसी ही अनेक दुर्व्यवस्थाओं का रूप लिए उजागर हो रहा है । मैं ही दुनिया और दुनिया ही मै है,  दुनिया के इन्हीं  दुर्व्यवस्थाओं का मै प्रतिफल हँू  और

दो सांकेतिक शेर

भुला दिया हो मगर मिट न सकेगा हमसे जो मिटाना है उसे भूल नहीं पाते हम (अस्तिव जिसके हम अभिन्न हिस्से हैं उसे भले ही हम भूले हुए हों पर उसे हम कभी मिटा नहीं सकते. परन्तु जिसको दिमाग ने रचा है, वह हमारा व्यक्तित्व, हमें मिटाना तो है पर उसको हम किसी भी तरह भूल नहीं पाते.) ******************** जहन ने देखा नहीं फिर भी बयां कर देता दिल ने देखा है, जुबां पास नहीं कहने को (अन्तस्थ को मन देख नहीं पाता पर बुद्धि के सहारे शब्दों में अभिव्यक्त करता है जबकि भीतरी अनुभूति अन्तस्थ को पूरी तरह छूती है फिर भी अभिव्यक्ति का कोई भी साधन उसके पास नहीं है.) - अरुण

एक शेर

आज का शेर ~~~~~~~~~~ नहीं आँखों ने सुना और दिखा कानों से दिल से छूना हो जिसे धरना नहीं हाथों से ********** अंतस्थ को अंतःकरण से ही जाना जा सकता है मन से नहीं देखा जा सकता. ठीक उसी तरह जैसे आँखों से सुना नहीं जा सकता एवं कानो से देखा नहीं जाता. जिसे अंतःकरण ही देख सकता है उसे मन से पकड़ने का प्रयास व्यर्थ है - अरुण

यह 'प्यास' तो निजी ही है

यह 'प्यास' तो निजी ही है ************************* यह भीड़ उन लोगों की ही जो अपनी निजी 'प्यास' का समाधान ढूंढ़ नही पाए पर यह जान कर कि इर्दगिर्द भी लोगों में ऐसी ही 'प्यास' है, वे इकठ्ठा हुए,'प्यास' का उपाय ढूँढने में जुट गए, कई सार्वजानिक तरकीबें इजाद की, मंदिर मस्जिद बने, पोथियाँ लिखी- पढ़ी गईं , पूजा पाठ,नमाज़ प्रवचन,भजन पूजन ऐसा ही सबकुछ...... और अब भी यही सब..... मानो 'प्यास' बुझाने के तरीकें मिल गएँ हों पर सच तो यह है कि निजी 'प्यास' अभी भी बनी ही हुई है और फिर भी संगठित धर्मों को ही प्यास बुझाने का उपाय माना जा रहा है, इसी सार्वजनिक भूल की वजह 'निजी समाधान' खोजने की दिशा में आदमी आमतौर पर  प्रवृत्त नही हो पा रहा - अरुण

तीन पंक्तियाँ में संवाद

तीन पंक्तियों में संवाद ************************** नफरत निभाई जाती है, संग... दोस्त के जिससे हो वास्ता उसीसे हो  घृणा +++++ भावना का विश्व है बड़ा पेचीदा ..................... मन न कभी मन को मिटा पाया कलम न कभी लिखे को मिटा पाई +++++ मन ही मन रचे समाधानों से काम चलाया जाता है ........................ अभी ईश्वर को जानने की जल्दी नही है हाँ, "मै  उसे मानता हूँ"- ये ख्याल ही ईश्वरसा है इसीलिए खोजी कम और आस्तिक बहुत हैं - अरुण

समूह-शास्त्र

सद्नीयत जो पूजते, मिलकर संघ बनाय पूजा होती संघ की, लेकर झूठ उपाय -अरुण आदमी का समूह-शास्त्र कुछ अजीब ही है। अच्छी नीयत से लोग इकट्ठा होकर संगठन बनाते हैं,आंदोलन चलाते है और फिर उस संगठन या आंदोलन की प्रतिष्ठा,सुरक्षा और वर्चस्व के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। समूह के हाँथों सद्नीयत का रूपांतरण बदनीयत में हो जाता है। - अरुण

सत्यम् शिवम् सुंदरम्

साधारणतया, किसी भी वस्तु, व्यक्ति या दृश्य को देखते ही कोई शाब्दिक,भावनिक आंदोलन...चाहे खुला हो या सुप्त....होने लगता है । मानो देखने और आंदोलन के बीच समय की gap हो ही न, ऐसा आभास होता है । इस कारण चित्त  'केवल और केवल देखना'- ऐसी प्रतीति से वंचित रह जाता है ।  देखना और देखनेवाला-  जिस जागे चित्त को.. एक अभिन्न प्रवाह से हों, उसे ही सुंदर और मंगल का सत्य दर्शन हो पाता है । - अरुण

घट घट में पानी भरा........

घट घट में पानी भरा, मिट गया रीतापन पानी को कैसे मिले?,  वह जो रीतापन -अरुण ************ शून्यत्व.... मस्तिष्क की ( तुलना घट या घड़े से)  स्थिती है, और मन है मस्तिष्क में  विषयवस्तुओं (तुलना पानी से) का संचार ।  अब सवाल यह है कि..... विषयवस्तु को, या यंू कहें, मन को..... शून्यत्व तक ( तुलना रीतेपन से )  पहंुचना या पाना कैसे संभव है? .... हाँ, संभव है, कैसे?...इसपर सघन चिंतन, या contemplation ज़रूरी है । - अरुण

आसमां और परिंदे

दुनिया में उलझना ही पडे, तो उलझो ऐसे जैसे परिंदों से.............. आसमां उलझे ****** आसमान है सत्य के जैसा अविचल, अकाट्य,अबाधित, जिसे कोई भी फडफडाहट, छटपटाहट,कोलाहल,तनाव, कुछ भी नहीं कर पाता । क्योंकि आसमान इन सबसे होकर गुज़र जाता है । मन का तनाव,अशांति या कोलाहल अपनी आक्रमक ऊर्जा खो बैठता है जब चित्त की प्रशांत अवस्था अपने पूर्ण तरल  स्वरूप में मन से होकर गुज़रती है । - अरुण

एक ऐसी बात.........

एक ऐसी बात है जो ध्यान में उतर आये तो बहुत कुछ कह जाती है बात यंू है-... आदमी अंधेरा भी देखता है और प्रकाश भी और इसीवजह अंधेरे में प्रकाश की और प्रकाश में अंधेरे की कल्पना करता  हुआ अंधेरा या प्रकाश देखता है परंतु प्रकाश का मूल स्रोत - सूर्य, न तो अंधेरा देखता है ओर न ही प्रकाश क्योंकि वही स्वयं प्रकाश है वास्तविकता में जीनेवाले हमसब अज्ञानयुक्त ज्ञान से काम चला रहे हैं मगर सत्यप्रकाशी न तो अज्ञानी है और न ही ज्ञानी क्योंकि वह स्वयं ज्ञान ही है - अरुण

मानवता चहुँओर

मानवता चहुँओर ****************** गंध का काम है फैलना चहंुओर 'अपने पराये' का कोई नही ठोर जिसको सुगंध लगे पास हो आवेगा जिसको सतायेगी दूर भग जावेगा गंध तो गंध है... होती निर्दोष चुनने में दोष है, चुनना बेहोश मानव में मानवता हरपल महकती है करुणा को भाये वो स्वारथ को डसती है - अरुण

इंसान का सिकुड़ता दिल

सच है कि तूफ़ानी हवाएँ क़हर ढातीं हैं तो यह भी सच है कि...क़ुदरत  तो सबकी है.. सो तूफ़ानों को भी...झूमने का मौक़ा देती है क़ुदरत की अनंत असीम दुनिया में  जो भी होना है, होता है और फिर भी.. किसी को किसी से..कोई  शिकायत नहीं होती  और न ही होती है किसी को किसी से कोई उम्मीद कोई भी किसी के आड़े नही आता और न ही कोई जतलाता है...किसी बात की मेहेरबानी क़ुदरत के ज़र्रे ज़र्रे से बहती है करुणाभरी मुहब्बत की धार जहाँ  सबकुछ जीवंत है, जी रहा है ख़ुद के लिए ही नही, सबके लिए इंसान भी इसी लीला का एक हिस्सा है फिर भी उसमें  जागा है ख़ुदगर्ज़ीभरा  एक जेहनी भूत जिसे... कैसे पता हो कि क्या होती  है करुणाभरी मुहब्बत ?.... और इसीलिए शायद जिस जगह है  क़ुदरत की पसरती दरियादिली.... वहीं रहता है इंसान का सिकुड़ता दिल मगर,  इससे भी किसी को कोई शिकायत नही - अरुण

अपनी भीतरी परछाईंयों में लिपटा

अपनी भीतरी परछाईंयों में लिपटा छटपटाता हुआ... दौड़ रहा है आदमी दर दर आज़ादी की भीख मांगते उनसे जो उपजे हैं उसके ही दिमाग़ी आंगन में... उन्हे तरह तरह के नामों से पुकारते हुए... कभी अल्लाह, कभी राम, कभी यशु कभी मार्क्स तो कभी माओ... ऐसा विवश, विकल, निद्रस्थ त्रस्त है अपने अंधत्व से और.. अपने उतने ही अंधे रहनुमाओं से आख़िर क्या करे बेचारा? जब तक वह  भीख मांगते, इच्छाओं की दौड़ लगाते थककर रुक नही जाता... यही सिलसिला सदियों से चलता रहा हैै.. और चलता रहेगा काश ! वह  सारी कोशिशों से थककर रुक जाए ... तो शायद देख पाए कि वह स्वयं रौशनी को रोके खड़ा है... - अरुण

विचार Vs ध्यान

जिसे चलते रहने की आदस सी पड गई हो या यूँ कहें कि चलना जिसका स्वभाव या स्वरूप बन गया हो.. वह कहीं भी ठहर नही पाता । बात मन की हो रही है । भीतर झांककर देखें.. मन विचार पर बैठकर चलता ही रहता है ... विचरता ही रहता है । स्वस्थ नही रह पाता.. यानि स्व स्थान पर बना नहीं रह पाता । जो ध्यानमग्न हो रहा...वही स्वस्थ हो पा रहा । मतलब..चित्त के स्वास्थ्य का रहस्य ध्यान में निहित है, विचार में नही । विचार... किसी पूर्वनियोजित गंतव्य की ओर, पहले से बनी भूमि पर ( स्मृति-अनुभव-ज्ञान) विचरते हुए.. पहुँचने का तरीक़ा है । ध्यान है..अपनी ही जगह ठहरते हुए अपने पूरे के पूरे अपरिचित अंतस्थ पर जाग जाने की घटना जो विचार की अनुपस्थिती में ही संभव हो पाती है । विचार का सहारा है..निद्रा जिसके टूटने पर ही प्रस्फुटित होती है जाग । - अरुण

हल चाहिए या समाधान ?

मानसिक स्तर पर....जो स्थिती चुबती है उसे समस्या मान लिया जाता है। वैसे जिसे समस्या कहा जाये, ऐसी कोई बात  होती ही नही। विचित्र बात तो यह है कि हर समस्या का हल किसी दूसरी समस्या में ही होता है और जब...वह भी चुबने लगती है तब नये हल की खोज  यानि.. नई समस्या की खोज शुरू हो जाती है । तात्पर्य यह कि समस्या का जन्म कभी रुकनेवाला नही । ऐसी समझ जो चुबन को ही जन्मने से रोक दे.... वही है सही छुटकारा जिसे हल नही .. समाधान कहना होगा । - अरुण

भगवद् गीता केवल एक बोध प्रसंग

भगवद् गीता केवल एक बोध प्रसंग ********************************** कई सच्चे, काल्पनिक, पौराणिक या ऐतिहासिक क़िस्से..... सुननेवाले को बहुत कुछ देते, सिखाते या जीवन की सच्चाई पर प्रकाश डालते हुए उसके दिल को छू लेते हैं । बहुत बार ऐसा होता है कि हमारी दिलचस्पी ऐसे क़िस्सों से सीधे सीधे कुछ लेने के बजाय किस्सोंका  बौद्धिक विश्लेषण या अन्वेषण करने में हो जाती है । उपरोक्त तथ्य पर ग़ौर करते यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवद् गीता केवल एक बोध प्रसंग है... सत्य-दर्शन है, नीति का पाठ पढ़ानेवाला....उपदेश ग्रंथ या Role Model नही । - अरुण

दुनियादारी पाप नहीं मगर .....

दुनियादारी पाप नहीं मगर ..... ***************************** दुनियादारी में रस लेना कोई पाप या बुरा काम नहीं है । मगर हाँ, उसके अच्छे बुरे, दोनों तरह के परिणाम स्वीकार्य होने चाहिए । दोनों ही के प्रति सम- स्वीकार भाव हो । जो इस बात में चूक जातें हैं वे अंधी धारणाओं के चक्कर में फँसकर, अंधे उपयों के हाँथों अपना सत्सदविवेक खो बैठते हैं और ऐसा करना निश्चित ही पाप है क्योंकि ऐसी बातें बेहोशी में ही घटती हैं । बेहोशी में होनेवाले कृत्य पाप नहीं तो और क्या हैं ? - अरुण

व्यक्तिगतता Vs सकल मानवता

Clinical या psychological अर्थ में नही, बल्कि व्यावहारिक अर्थ में (मानवी) Mind -इस शब्द में,... brain,mind और उनका bodily manifestation.... इसतरह तीनों की...मिलाजुली आंतरिक  प्रक्रिया समाहित है और इसी अर्थ को अगर आधारस्वरूप स्वीकारा जाए.. तो.. यह कहना ग़लत नहीं कि मानवजगत मनुष्य का नही होता बल्कि उसके जीवंत Mind का ही जगत है । जो बिरले व्यक्ति..सकल मनुष्यजगत का जीवंत Mind होकर जागे, उनकी व्यक्तिगतता अनायास ही ओझल हो गई। ऐसे बुद्धों ने मनुष्य की व्यक्तिगतता या संकीर्णता को हर युग में कारुण्यमयी चुनौती दी है । - अरुण

उपयोग Vs उपवास

मन-बुद्धि का उपयोग करते हुए, अपने 'स्मृति-ज्ञान-अनुभवों' के आधार पर आदमी नये को जानता है । परंतु मन-उपरांत या मनोत्तर अवस्था का बोध, मन-बुद्धि एवं 'स्मृति-ज्ञान-अनुभवों' के उपयोग से नही, उसके उपवास  में ही घट पाएगा । उपवास यानि अवधानपूर्ण सानिध्य - अरुण

पूरे में उपस्थिति

पूरे में उपस्थिति ****************** जो पूरे के पूरे आकाश में उपस्थित है वह आकाश के किसी भी अंश में न उलझते हुए उसे देख सकता है । जो किसी अंश में ही ठहरा है वह पूरे आकाश को देखना तो क्या ?.. उसकी कल्पना तक नहीं कर सकता । यह बात मनुष्य की चेतना से ताल्लुक़ रखती है । - अरुण

प्रधान मंत्री मोदीजी का स्कूली बच्चों से संवाद

शिक्षक दिन के अवसर पर हुआ यह संवाद बहुत ही सहज,सरल, बोझविहीन एवं  बोधप्रद रहा । किसी भी मत या पक्ष विशेष की इसमें गंध न थी । संवाद का आशय एवं तरीक़ा बच्चों के साथ संपर्क बनाता हुआ दिखा, जिसमें सीख तो थी पर किन्हीं ' ऊँचे ऊंचे आदर्शों ' की बकवास नही । मोदीजी ने अपने निजी जीवन की घटनाओं और अनुभवों का जो ज़िक्र किया उसमें कुछ भी ख़ुद की बढ़ाई करने जैसा न था । जो भी कहा गया और सुझाया गया वह स्वाभाविक और व्यावहारिक था, उसमें किसी भी प्रकार का बनावटीपन या डायलाॅगबाजी न थी । देश चाहता है कि मोदी जी के माध्यम से देश की परिस्थिति और मनस्थिती में अनुकूल बदलाव आये । देश को 'अच्छे दिन', 'सुराज्य' जैसी मिथ्या नारेबाज़ी की कोई आवश्यकता नही है, देश को ज़रूरत है सिर्फ समसंख्यकभाव एवं हित की । ज़रूरत है अब  'अल्पसंख्यकी' मजबूरी और 'बहुसंख्यकी' अहंकार से देश को निजात दिलाने की । - अरुण

दिखाई देना और देखी हुई लगना

यह बात कि लाठी से परछाई को हटाया नही जा सकता और न ही परछाई से लाठी को पकड़ा जा सकता है, जिन्होंने अपनी खुली साफ आंखों से  देख ली है, वे इस बात को करने की चेष्टा तो क्या... इस बात को करने  की उन्हे.. कभी इच्छा भी नही होगी । हाँ, मेरे जैसे पढ़-पंडित जिन्हें यह बात (और ऐसी ही कई बातें ) न दिखाई देते हुए भी देखी हुई लग रही हैं,  वे जीवन की ऐसी कई अशक्यताओं की इच्छा संजोये जी रहे हैं । - अरुण

विज्ञान और आध्यात्म का आपसी सहयोग

विज्ञान और आध्यात्म आपस में एक दूसरे से सहयोग करते हुए ही... सृष्टि और उसके जीवन संबंधी सत्य को समझ सकते हैं। विज्ञान के पास सही explanations हैं तो आध्यात्म के पास सही समझ । वैज्ञानिक Explanations के सही आकलन के लिए आध्यात्मिक स्पष्टता चाहिए और आध्यात्मिक स्पष्टता के लिए वैज्ञानिक दृष्टि । विज्ञान.... ज्ञान का (यानि बोध का.. जानकारी का नही) यंत्र है तो ज्ञान या आध्यात्म...... विज्ञान का अंतिम प्रतिफल । वैज्ञानिकों की अहंता (egoism) केवल तथ्य को सामने लाती है....सत्य को नही,  तो दार्शनिकों का गूढगुंजन ( mysticism)  सत्य को केवल विभूतित करता है... अनुभूतित नही । सत्य है मनोत्तर (Beyond mind) स्पष्ट समझ.... जिसके लिए दोनों ही  ज़रूरी हैं.... वैज्ञानिक तथ्यों का स्पर्श और चित्त का उत्कर्ष । - अरुण

Consciousness और Awareness

जागृति' यह शब्द, Awareness  और Consciousness दोनों पर लागू करने का प्रचलन है । परंतु दोनों अंग्रेजी शब्दों का  आशय भिन्न है । Consciousness हमेशा आंशिक होती है ।....आदमी जागता होता है या स्वप्न देखता या गहरी नींद में होता है। जब वह जागता होता है, उसे स्वप्न या नींद की, जब स्वप्न देखता होता है, उसे जाग या नींद की.....कोई ख़बर नहीं होती। इसी तरह,  नींद में वह  बाक़ी  दोनों अनुभूतियों के बारे बेख़बर होता है।  Awareness हमेशा ही जागृत (Being) है । जाग,स्वप्न और नींद- तीनों की उसे ख़बर हो जाती है, इसीलिए आदमी हर स्थिति से गुज़रने के बाद, उस अवस्था से गुजरने को पहचान लेता है, - हाँ मै जाग रहा था, पूरी तरह से सो रहा था, सपने देख रहा था,..... ऐसे वक़्तव्य कर पाता है..... यह सूचित करने के लिए कि... वह Conscious था, Sub-Conscious था, वह Unconscious अवस्था से नज़दीक़ था। बुद्ध लोग जिस Choice less Awareness (निर्विकल्प समाधि) की बात करते है, वह Awareness की वह परिपूर्ण अवस्था है जिसमें Consciousness की आंशिकता ओझल होकर  Awareness के स्वरूप में रूपांतरित हो जाती है। Consciousness द्वैत की त

भँवर

भँवर ******** समुद्र में भँवर की जो अवस्था है वही है व्यक्ति की सकल चेतना-सागर में । भँवर.. सागर से अलग कहाँ होता है, फिर भी शायद उसे लगता होगा कि  वह अपनी ही गति के सहारे अपनी अलग धुरी पर खड़ा हो चक्कर लगा रहा है । सकल चेतना-सागर में व्यक्ति की चेतना.. अलग कहाँ ? व्यक्ति के माध्यम से... चेतना का सकल सागर ही अभिव्यक्त होता रहता है, फिर भी उसे यानि व्यक्ति को लगता है कि उसकी चेतना अलग है क्योंकि वह अपनी अलग धुरी (अहंकार) पर अपनी स्वतंत्र गति (अलग चेतना) के सहारे विचर रहा है । - अरुण                                      

भीतर हिंसा चल रही.....

सब बाहर के क़ायदे,कित हों चुस्त हुशार । भीतर हिंसा चल रही, नफ़रत की तलवार ।। ---- अरुण आदमी अपनी बाहरी.. सामाजिक, राष्ट्रीय, नैतिक, आर्थिक, प्रशासकीय, विकासकीय.... सभी तरह की व्यवस्थाओं को भले कितना ही चुस्त दुरुस्त क्यों न रखे, भीतरी मानसिक दुर्व्यवस्था उसे परास्त करती आयी है और करती रहेगी । जागे हुए लोगों से प्रेरित होकर हज़ारों बार आदमी की जात ने भीतरी रूपांतरण लाना चाहा मगर हर  प्रयास अपने ही बोझ तले मुर्दा बनकर रह गया । बाहर सब ठीकठाक होते दिखा मगर भीतर क़ायम रही आदमी की व्यथा । - अरुण  

झूठे सच

झूठे सच ----------------- जो तथ्यरूप में 'है' उसका कोई उपयोग करे तो इसमें क्या ग़लत? परंतु जो किसी भी रूप में 'है ही नही' उसके 'होने को' मानते हुए, ... कोई भी कारवाई करना कहाँ तक सही (सत्य) होगा? मगर मनुष्य का सांसारिक जीवन एक ऐसा प्रसंग या situation है जहाँ 'है ही नही' के 'होने को' स्वीकारते हुए उसको भी उपयोग में लाया जाता है।  सवाल उठेगा कौन से हैं वे झूठे सच (अतथ्य तथ्य) जिन्हें सांसारिकता उपयोगी मानती है?  वे 'झूठे सच' कई कई कई हैं मगर केवल एक झलक के तौर पर, कुछ हैं जैसे...... व्यक्तित्व,महत्व,भिन्नत्व, उद्देश्य, यश-अपयश,समाज,देश-परदेस,अहंकार,अस्मिता इत्यादि इत्यादि - अरुण

दर्शन ......जागा या सोया हुआ

काग़ज़ को बहुत बहुत दूर से देखने पर .......  कुछ भी न दिखा दूरी कम होते ही .......काग़ज़ पर काली खिंची रेखाएँ दिखीं दूरी और कम होते दिखा............ वे रेखाएँ नही, कोई लिखावट है नज़र काग़ज़ की लिखावट पर ठहरते ही.... 'पढना' जागा  और 'देखना' सो गया ****************** ऊपर लिखा अनुभव बाहरी एवं भीतरी... दोनों तरह के observations को ध्यान रखकर लिखा गया है। - अरुण

शांति यानि मन-पकड़ से मुक्ति

मन की शांति के बारे में बहुत कुछ कहा सुना जाता हैै । विडम्बना तो ये हैै कि... मन ही अशांति का ज़रिया है । तो क्या मन की पकड़ से (मन से नही) मुक्त हुआ जा सकता है?... हाँ, हुआ जा सकता है । इस तरह की साधना जिनका अभीतक विषय नहीं बना, परंतु जिन्हें मन-शांति चाहिए ऐसे हम जैसे लोग, .....मन को दबानेवाली, नकारनेवाली मन रचित तरकीबों का सहारा पकड़ लेते हैं ....जपजाप, concentration, मन को divert करने जैसी सुप्रतिष्ठित नादानियों को पसंद करते हैं । - अरुण

'जानना' और 'मानना'

ज़िंदगी में 'जानना' और 'मानना' दोनों एक दूसरे के परिपूरक होते हैं । जानने के लिए शुरूआत कुछ मानकर ही करनी पड़ती है और जब मानना जानकारी से मेल खाता हो तभी वह विवेक के दायरे में रह पाता है । सत्य की खोज में श्रद्धाधारित विवेक और विवेक आधारित श्रद्धा, दोनों मिलकर सहायक बनते हैं । यह संतुलन जो खो बैठते हैं वही अतितार्किक या अंधविश्वासी समझे जाते हैं । - अरुण

दृश्य और दर्शक

दृश्य और दर्शक केवल गहरा एवं व्यापक आत्म-अवलोकन  ही समझा पाता है कि...... दृश्य का स्पष्ट दर्शन पाने वाला दर्शक स्वयं के प्रति सोया होता है, या स्वयं पर ध्यान ज़माने वाला, दृश्य के प्रति सो जाता है. दृश्य और दर्शक दोनों पर एक साथ हुई जागृति ( Awareness)  ही.... दृश्य, दर्शन और दर्शक – तीनो के बीच के भेद को पूरी तरह खोते हुए... सृष्टि के एकत्व को देख लेती है । -अरुण  

आत्यंतिक आंतरिक क्रांति है निजी मसला

सदियाँ गुज़र चुकी हैं, मगर आदमी वही है.....वही लोभ, क्रोध, अहंकार,संघर्ष और सुखदुख.. सबकुछ वही । केवल बदलता रहा है उसका बाहरी नक़्शा .. उसका रहन सहन, सुख सुविधा, तौर तरीक़े, सामाजिक परिवेश और जीवन मूल्य । कुछ ही लोगों में     आत्यंतिक आंतरिक क्रांति घट पायी है जो पूरी तरह निजी रही । आदमी की भीड़ ऐसी ही निजी क्रांतियों से प्रभावित होते हुए नये नये धर्म इजाद करती है और फिर नये नये बखेड़े खड़े कर देती है । - अरुण

तटस्थ, समाधिस्थ एव्हरेस्ट

अटूट संकल्प,अडिग आत्मविश्वास और प्रयत्नों की पराकाष्ठा करते हुए एव्हरेस्ट की चोटी तक पहुँचनेवाले, विजय-भाव से ओतप्रोत हुए होंगे । वहाँ विजय पताका फहराते उनकी छाती गर्व से फूल गयी होगी । यह देखकर एव्हरेस्ट क्या महसूस करता होगा ? तटस्थ, समाधिस्थ खड़ा एव्हरेस्ट आदमी की नादानियों पर बड़े ही निष्कटभाव से हंस लेता होगा,... पूछता होगा.... विजय?.. किसकी?...किसपर? - अरुण

होश का नाम है..ज़िंदगी

आदमी अपनी अनसुलझी या भ्रमउलझी सोच-समझ की वजह से, जन्म और मृत्यु के बीच के फ़ासले को ही अपनी ज़िंदगी समझ बैठा है । ऐसा वह समझता है.....केवल इसलिए... क्योंकि  उसके प्राण ज़िंदा है, देह.. देख-सुन और चलफिर पाती है, दिमाग.. बीते हुए का सहारा पकड़ कर वर्तमान में कुछ हद तक जी लेता है ।....वह होश में होते हुए भी ....उसे यह होश नही है कि वह ख़ुद गुज़रे दिनों के (या मरे दिनों के) अनुभवों का ही निचोड़ है । एक तरह से.. वह मरा मरा ही जी रहा है। ज़िंदगी उस होश का नाम है जो अपनी बेहोशियों को भी साफ़ साफ़ देख ले । - अरुण

यहाँ मै अजनबी हूँ.........

अस्तित्व के तल पर जा देखने पर जो सच्चाई सामने आती है, उसे स्वीकारना सहज नही है । इस मायावी जगत में व्यक्ति हैं, समाज हैं,  आपसी संबंध हैं, आपसी परिचय या अजनबीपन ...... ये सबकुछ है । परंतु यदि अस्तित्व बोल पड़ा तो कहेगा ..... व्यक्ति क्या होता है?.. नही जानता, समाज तो कभी देखा ही नही, कोई या कुछ भी जब किसी से जुदा नही तो फिर संबंधों का सवाल ही कैसा? मै हूँ और केवल मैं ही हँू ़़़़... अविभाजनीय (individual), अगणनीय, अभेद्य। न मेरे भीतर कुछ है और न कुछ भी है मुझसे बाहर.... सो..  न मैं किसी को जानू, न कोई हो अलग कि मुझे जान सके। मेरी इस अजनबी अवस्था में मै हँू तो... मगर अजनबी हँू। - अरुण

जस भाव तस प्रभाव

शरीर की जगह ही विचार है, विचार के पीछे ही भाव है, भाव में ही सारा जीवन प्रभाव है, इसीलिए जैसा भाव है वैसा ही जीवन फलित हुआ दिखता है। जैसा ह्रदय होगा वैसा ही होगा विचार और वैसी ही होगी शरीर से अभिव्यक्त कृति या आचरण। ह्रदय अगर शुद्ध, भक्तिपूर्ण हो तो कृति भी निस्वार्थ प्रेममय होगी। ह्रदय अगर 'मै' और 'तू' में विभक्त हो तो आचरण भी स्वार्थ एवं कपटमय होगा। - अरुण  

दुख का काँटा ना चुबे

दुख का काँटा ना चुबे....... *************************** जिन्होंने काँटे कंकड़ों को अपना दुश्मन मान लिया, उन्होंने सारी ज़िंदगी उन्हे रास्ते से हटाने,उनसे झगड़ने में गँवा दी। जो इस रहस्य को देख सके कि समस्या काँटे कंकड़ में नही, उनसे होनेवाली चुबन से है, उन्होंने खोज कर  चुबन-ग्राहकता से मुक्त होने का  राज जान लिया। - अरुण

विज्ञान और धर्म

विज्ञान और धर्म ********************* विज्ञान सुख समाधान के साधनों को केवल उपलब्ध कराता है परंतु धर्म उनमें जगाता है....स्वयं सुख समाधान । सुख....साधनों से आता है, परंतु साधनों में होता नही। - अरुण

भेद का भाव ही संघर्ष की जड़

अस्तित्व में दुकडे या भेद है ही नहीं, फिर भी मन भेद की कल्पना करते हुए अस्तित्व को टुकड़ों में बंटा पाता है, यही बाँट मनुष्य के सभी अंतर संघर्षों की जड़ है -अरुण       

धर्म है रचना तो धार्मिकता है एक तत्व

‘धार्मिकता’ एक गुण है. इस गुणविशेष को समाज ने धर्म में ढांचे में ढाल दिया है, यह न समझते हुए कि गुण एक निराकार तत्व होने के कारण इसे किसी ढांचे में बाँधा नही जा सकता. इसी ढांचे के अनुकरण के लिए संस्कार रचे गये, संस्कारों से बंधे लोग धार्मिक कहलाए जाते हुए भी धार्मिकता के प्रमाण नही हो सकते -अरुण    

भारत में राजनिति की एक सच्चाई

राजनीति में भी व्यावहारिक दांवपेंच बहुत काम आतें हैं. संविधान, नीति और नियमों के दायरे में अपनी नीयत को बिठा दो, बस ... इतना ही काफी है. फिर आपकी नीयत असंवैधानिक ही क्यों न हो, आप या आपका दल और आपकी औपचारिक सोच, संवैधानिक मान ली जाती है. यह खुला रहस्य है कि भारत में स्वभावतः या मानसिक तौर पर जो लोग या समूह साम्प्रदायिक हैं, उन्हें भी राजनैतिक दल की मान्यता प्राप्त है. इसीतरह जो पार्टियाँ अपने को धर्मनिरपेक्ष कहलाती है, वे भी सांप्रदायिक पक्षपात करने के बावजूद भी स्वयं को धर्मनिरिपेक्ष कहलाकर लोगों का समर्थन जुटातीं हैं. --- नीयत की सच्चाई नियमों से साबित नहीं होती -अरुण