आदमी को उसके ‘बाहर’ ने बांध रखा है



सारे रिश्तों,सरोकारों की डोरियों के
दो छोरों में से एक छोर बाहर है तो
दुसरे छोर को भीतर की ‘हस्ती’ ने पकड़ रखा है
बाहर का छोर जरा भी हिले, खिंचे, या उसमे
कुछ भी हरकत हो तो भीतरी हस्ती हिल जाती है
अभी इस ‘हस्ती’ का सारा नियंत्रण बाहर का छोर कर रहा है
आदमी अपने को भले ही आजाद समझे
उसको चलानेवाला बटन
उसके रिश्तों के हाथों में है
रिश्ते जैसे रंग बदलते दिखते हैं
आदमी का प्रतिक्रियात्मक आचरण उसी अनुसार
बदलता जाता है,
कोई चिढाये तो चिढ जाता है
कोई प्रशंसा करे तो फूल जाता है
,,,,, ऐसी ही कई बातें
-अरुण  
    

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