करीब सात दशक हुए, मै उड़ना चाहता हूँ



मै ऐसे पिंजड़े में हूँ जिसका दरवाजा खुले
करीब सात दशक हुए,
बैठे बैठ अपने पंखों की ताकत खो चुका हूँ,
रोज रोज मिलनेवाली सब्सिडी के बलपर
दिन गुजारता हूँ, हाँ इसके बदले
हर पांच वर्ष में एक बार
मुझे धन्यवाद व्यक्त करने का मौका मिलता है
कभी इनका धन्यवाद करता हूँ तो कभी उनका
मै उड़ न जाऊं इस डर से दोनों ही मेरे पैरों को
आश्वासनों की राखियों से बांधे रखते है
हाँ चूँकि दरवाजा खुला पड़ा है, मेरी इज्जत भी करते है
कभी मेरी जात, कभी धरम, कभी प्रान्त तो कभी
मेरी भाषा का मुझमे स्वाभिमान जगाकर
मुझे अपना बना लेते हैं ......
दूसरों को क्यों दोष दूँ ? -मै भी क्या कुछ कम हूँ ?
मै भी अपनी कमजोरियों और
समुदाय-शक्तियों के बलपर
अपना मतलब साध लेता हूँ
हाँ बाहर निकलकर उड़ना चाहता हूँ
पर इन्तजार उस दिन का है
जिस दिन पिंजड़े को आग लगी होगी
-अरुण  

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