अस्तित्व – खयाल-ए-इन्सा की अमानत नहीं



जगत या अस्तित्व
मनुष्य की व्याख्याओं,
उसकी गढ़ी परिभाषाओं से नहीं चलता
और न ही (जैसा की आदमी सोचता है)
अस्तित्व कहीं से आता है और
न ही कहीं जाता है, वह न बढ़ता है और
न घटता है
मनुष्य की अपनी समझ ने
अस्तित्व को बढ़ते –घटते, आते जाते,
बदलते हुए देखा है
पर अस्तित्व हमेशा ही इन सब बातों से परे
अपने में ही स्थित है, अपने में है चालित है,
अपने में ही बढ़घट या बदल रहा है
न उसे किसी अवकाश का पता है
और किसी काल का
-अरुण  

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