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Showing posts from October, 2012

पशु और मनुष्य

पशु जो भी करता है ठीक ही होता है, परन्तु मनुष्य अपनी पशुता को ‘ठीक होने का’ दर्जा देने के लिए तर्क या बुद्धि या विवेक का सहारा जुटा लेता है और इसीलिए शायद मनुष्य को विवेकी पशु कहते हैं -अरुण     

द्वैत और संघर्ष

सिर्फ कहने के लिए नहीं बल्कि तन मन और ह्रदय की गहराई से जिसे यह बात छू जाए कि- ‘ईश्वर कण कण में समाया हुआ है’- उसके जीवन से द्वैत-भाव और उसका परिणाम यानि संघर्षमयता पूरी तरह लुप्त हो जाएगी, यही स्वाभाविक है -अरुण  

हमें होश तो है पर होश का होश नहीं

‘मैं हूँ’ – इस बोध को हम चेतना या चैतन्य कहते हैं, इसी बोध या जानकारी को केंद्र में रखकर सारी जानकारियाँ बनती और संचालित होती रहती हैं यह ‘निरंतर संचालन’ ही जीवन जान पड़ता है जो जीवन ‘मै हूँ’ के बोध की निर्मिती और गति को आकार   देता है उस जीवन का होश ही नहीं है इसतरह हमें होश तो है पर होश का होश नहीं -अरुण      

जीवन के तीन उपकरण

सारा जीवन हम तीन उपकरणों के बल पर व्यतीत करते हैं उर्जा उपकरण , संवेदना उपकरण और बुद्धि उपकरण होता यूँ है कि हमारा सारा ध्यान-प्रकाश बुद्धि उपकरण ने जगाये प्रकाश द्वारा आच्छादित हो जाता है फलतः हम उर्जा, और संवेदना का उपयोग कर अपना बुद्धि-प्रकाश संचालित करने में ही जुट जाते हैं ध्यान प्रकाश दबा दबा सा रह जाता है -अरुण  

संवेदना भी वेदना ही

संवेदना भी शरीर के लिए वेदना जैसी ही है. संवेदना का विषय उस वेदना को मीठी या खट्टी बनाता है. ज्ञान की प्रक्रिया में भी, अंतर-इन्द्रियों के प्रयोग के कारण अंतर-वेदना अनुभूत होती है इसीलिए विचार-गति के चलते मन दुखी या प्रसन्न होता रहता है हाँ जिस विचार में शुद्ध निरपेक्षता हो (यानि जिसमें अहंकार का विनियोजन न हो) वही विचार शुद्ध समझ या बोध जगा पाता है -अरुण