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Showing posts from July, 2012

अंतर्ज्ञान

ज्ञान से दृष्टिकोण बदलते हैं, अंतर्ज्ञान से बदलती है दृष्टि और फलतः सृष्टि भी -अरुण  

वक्त

वक्त बनाये इंसाकी मुराद खुद बना,बिगडा,हुआ बर्बाद ये वक्त जो है इंसा का दुश्मन की इंसा ने ही इसकी इजाद -अरुण

अपनी ही आँखों से दिखता

फलसफों की आँखसे कुछ भी न दिखना ज्ञान की दीवार के उसपार उठना बुद्ध,शंकर या कि ओशो कोई भी हों अपनी आँखों से ही अपना रूप चखना -अरुण      

खुद को अलग रखकर कुछ देखता नही

जो तथ्य देख लेता चुप बैठता नही – (यानी वैज्ञानिक) जो देखता रहे कुछ सोचता नही – (जीवंत आध्यात्मिक, दार्शनिक नही ) विज्ञान बडबडाता, अध्यात्म चुप रहे जो खुद को अलग रखकर कुछ देखता नही -अरुण  

खोज सच की

खोजने से नही हासिल ,ये ऐसा सच अच्छा यही कि तू खोजने से ही बच ये देख, क्यों और कौन खोज रहा है बस देखता जा उस खोजनेवाले का सच - अरुण  

संवेदनशीलता (contact ness)

जबसे दिल का दौरा पड़ा है संगदिल ने दिल को है जाना   Though heart is in the body but body is rarely aware of it. -अरुण   

ये ‘एक’ हुआ क्या ?

खयालों से बना मन, बनी जिन्दा शख्सियत सारा जहान जबकि हुई, ‘ एक ’ हकीकत इंसा को समझ आएना, ये ‘ एक ’ हुआ क्या ? देता रहा खयाल को ही,   सारी अहमियत -अरुण     

आस्तिकता

  ‘ वो है ’ - इसबात का पूरा पूरा और गहरा एहसास ही आस्तिकता है केवल ‘ वो है ’ यह कहते रहना, ‘ मेरा उसपर विश्वास है ’ यह दुहराते रहना या केवल उसके गुण गाना भी आस्तिकता है पर बनावटी और कामचलाऊ -अरुण  

सिर्फ देखना ही

अस्तित्व को देखते ही, उसको लेकर जानने और बोलने की लत लगी है उसको देखना, सिर्फ देखना ही बन पड़े तो जिंदगी का जिंदापन दिख पड़ेगा -अरुण

भ्रमित, संभ्रमित, पंडित और तत्व-स्पर्शी

जो भ्रमवश अज्ञानी हैं, डोरी को साप समझते हैं और भयभीत हैं   कुछ ऐसे हैं जो देख रहे हैं कि यह डोरी ही है, फिरभी संभ्रमवश भयभीत हैं कुछ साप और डोरी के भेद का सही सही विश्लेषण कर सकते है – वे वैज्ञानिक, पंडित या दार्शनिक हैं और जो डोरी के डोरीपनही में डूबकर उसे जानते हैं- तत्व-स्पर्शी हैं -अरुण  

किसी जागे हुए की अभिव्यक्ति

अँधेरे में रहकर अँधेरे से झगडना काम न आया, क्योंकि पता न था कि वह अँधेरा नही, मेरी ही परछाई थी पीछे खड़े सूर्य पर ध्यान ही न गया क्योंकि अँधेरा परछाई का ध्यान को निगल चुका था. इसतरह तब अँधेरा भी था और जिसपर मेरा ध्यान नही वह उजाला भी पर अब अँधेरा न तो अँधेरा है और उजाला न तो उजाला ही ........ कोई भेद नही -अरुण   

जीवनोपयोगी दृष्टान्त

किसीने सूचित किया   “ सेठजी घोडागाडी पर सवार होकर बाजार जा रहे थे. ” इस सूचना में निहित तथ्य हैं – सेठजी का प्रयोजन बाजार जाने का था गाडीवान सेठजी के आदेश का पालन कर रहा था घोडा गाडीवान के लगाम-सकेतों के अनुसार अपनी दिशा और गति संवार रहा था घोड़े के कदम घोड़े की मस्तिष्क के आधीन होकर काम कर रहे थे इसतरह सेठजी अपने प्रयोजन से, गाडीवान मिले आदेश से, घोडा लगाम से और घोड़े के कदम घोड़े के मस्तिष्क से संचालित थे. हरेक का संचालक अलग होते हुए भी देखनेवाले की दृष्टि और समझ में सभी – गाडीवान, घोडा और घोड़े के कदम – मिलकर एक ही प्रयोजन की दिशा में संचलित लग रहे थे. इसीतरह, अहंकार, मन, मस्तिष्क और शरीर मिलकर संचलित होते दिखते हैं, किसी बाजार या काल्पनिक प्रयोजन की दिशा में. -अरुण

तनहाई में बडबडाता है

सरहदें हैं जबतलक महफूज दिल में इरादा जंग का मिटना, नही मुमकिन तशनालब को ही ये मय नसीब है वैसे तो कई हांथों में प्याले दिखते झूठ से भागो तो बात नही बनती ‘ अरुण ’ झूठ को देखे बिना, सच को जाना किसने जंगल में पेड तनहा चुपचाप खड़ा ये तो आदमी है, तनहाई में बडबडाता है -अरुण                

भाषा की गुत्थी

‘ निष्काम भाव से कर्म करो, फल की आशा मत रखो ’ – यह वाक्य कई बार कहा जाता रहा है. परन्तु इस वाक्य में एक स्वाभाविक गुत्थी है जो इस वाक्य के आशय को भ्रष्ट कर देती है, और इस कारण आशय ठीक ठीक समझा नही जाता. वास्तव में,   ‘ कर्म करो ’ - इस कथन में तुम करो, तुम्हें करना है, तुम करनेवाले या कर्ता हो – ऐसी सलाह नही है क्योंकि ‘ निष्काम ’ का अर्थ है कि ‘ तुम कर्ता हो ’ ऐसा भाव न रखते हुए कर्म होने दो. यदि ऐसा भाव (निष्काम भाव) सघनता के साथ होगा तो स्वभावतः ही फल की आशा का अभाव होगा. -अरुण               

सत्य-वचनों में विरोधाभास

कभी कभी दो सत्यवचन परस्पर विरोधी लगते हैं पर होते नही. पढने-सुनने वाले अगर परस्पर विरुद्ध दिशा या जगह पर स्थित हों तो वचनों की दिशा बदलना भी लाजमी हो जाता है -अरुण         

‘कल’ और ‘कल’ की कलकलाहट

दोनों ‘ कल ’ बीता-कल और आनेवाला-कल, जिंदगी को उसके ‘ आज ’ से भगा ले जाते हैं, वहाँ ठहरने ही नही देते. जो ‘ आज ’ और ‘ अब ’ पर ठहरा उसे ही जिंदगी के दर्शन हुए -अरुण  

रिक्त ऑंखें

आँखों ने जो देखा था, उतर आया है नज़ारे में अब जो भी दिखता है , नया नही हो सकता अब नया देखने के लिए, आँखों को भुलाने होंगे वे सारे नज़ारे जो आँखों ने पहले देखे हुए थे -अरुण    

अपने मूल स्वरूप का सतत स्मरण

नाटक या फ़िल्म में जिस प्रकार अभिनेता अपने मूल व्यक्तित्व और पहिचान को, एक क्षण के लिए भी न भुलाए हुए, अपनी भूमिका को सही सही ढंग से निभाता है, उसी प्रकार अपने मूल स्वरूप को न भूलते हुए, इन संसारी भूमिकाओं को जो आदमी ठीक ठीक निभाता होगा, वह कितना मुक्त और आनंदी होगा, यह सोचकर ही मै गदगद हो जाता हूँ -अरुण  

जन्म-मरण, आरम्भ–अंत

जन्म - मरण , आरम्भ – अंत जैसी संकल्पनाएँ कामचलाऊ हैं क्योंकि अस्तित्व में न कहीं भी शुरुवात है और न कहीं भी अंत. मस्तिष्क जहाँ से देखना या जानना शुरू करता है मस्तिष्क के लिए वही शुरुवात है, और यही बात अंत के बारे में भी. ‘ जन्म-मरण ’ भी आदमी की समझ के अनुसार निर्धारित होते हैं, जबकि वास्तविकता में वे होते ही नही -अरुण    

सौ रूपये की एक पूरी बंधी नोट

जिस तरह सौ रूपये की एक पूरी बंधी नोट में ही सौ रुपये मूल्य की क्रयशक्ति समायी हुई है, नोट का कोई भी छोटा बड़ा टुकड़ा शून्य-कीमत का है, ठीक ऐसे ही पूरी की पूरी चेतना या स्मृति ही बुद्धत्व (Intelligence) को जगाती है. परन्तु चेतना के टुकड़े (टुकड़ों की आपसी प्रक्रियाएँ) नाना प्रकारकी पीडाएं उभारने वाले संघर्ष को जन्म देते हैं -अरुण  

हम भ्रम को आधार बनाकर जी रहे हैं

हिंसा चाहे अहिंसक बनना, बन नही सकती अँधेरा चाहे प्रकाश बनना बन नही सकता    ............ ऐसे दो छोरों के बीच,जिनका न कोई आरंभ हो या अंत, हमेशा प्रकाश ही प्रकाश है, प्रकाश निर्विचार का, प्रकाश (भूत-भविष्य और वर्तमान जैसे) विभाजन विरहित समय का. ऐसी चिरंतन प्रकाश-अवस्था में जब विचार या विचार-गति का अधेरा चलने लगता है, विभाजनयुक्त समय (या मनोवैज्ञानिक समय) का भ्रम सक्रीय हो जाता है ऐसे भ्रम ही हमारे जीवन के आधार बन चुके हैं -अरुण        

एक सार्वजानिक भ्रम

पेड के उस पार देखा, चाँद लटका था उफक पर, पर लगे कि चाँद पर ही पेड कोई उग रहा हो   Because of the sense of embodiment or ownership ( the third among the fivefold characteristic defining the ‘Self” ), we feel ourselves anchored to our bodies. -अरुण       

ख्यालात की माटी है

ख्यालात की माटी है,ख्यालात का कारीगर माटी की नगरी में, माटी के तने महल इन महलों में रहकर जितने सपने आये उन सपनों से गुजरी इंसा की उम्र-डगर -अरुण

विश्व- न्यूक्लियर संशोधन के क्षेत्र में कल का दिन अतिमहत्वपूर्ण

कल ‘ सर्न ’ – इस अणु-कण संशोधन संस्था ने ‘ हिग्ज बोसन ’ या ‘ देव-कण ’ के अस्तित्व की पुष्टि कर दी है. समझा जाता है कि यही वे कण हैं जो निराकार या अदृश्य सृष्टि को आकार या द्रवमान देने के लिए जिम्मेदार हैं. कहते हैं सृष्टि का ९६ प्रतिशत हिस्सा अभी भी ‘ निराकारावस्था ’ (पदार्थ और ऊर्जा दोनों की एकावस्था) की स्थिति में हैं. भारत में सदियों से यह बात कही जाती रही है कि निर्गुण निराकार से ही सगुण साकार सृष्टि का अवतरण हुआ है परन्तु यह बात मानव बुद्धि की समझ से हमेशा बाहर रही शायद इस नये अनुसंधान के बाद इस बात को समझने और समझाने में सहुलियत हो जाए -अरुण      

दो भिन्न जीवन गुण

कल्पना में सराबोर हुए सत्य में जीना और सत्य में बने हुए कल्पना में विचरना - दो भिन्न गुण हैं. पहला गुण है सांसारिक व्यक्ति का तो दूसरा है अवधानी का -अरुण  

खुशी और गम

हर खुशी है किसी गम का सबब हर गम में किसी खुशी की तलाश जिंदगी इन दोनों को पकड़कर चलती कभी खुशी का तो कभी गम का साथ -अरुण

खोज को हासिल नही है

किसी ने कहा है .... जितना खोजोगे सच को न पा सकोगे उसे, अगर ये खयाल है कि पा लिया है उसे तो यह सच नही कुछ और है क्योंकि सच किसी इच्छा का और न ही किसी कोशिश का फल है सच तो इच्छाओं और कोशिशों के थम जाने पर मिलता है -अरुण