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Showing posts from March, 2012

जिंदगी आयी तब जिन्दा थी

जिंदगी आयी तब जिन्दा थी, पर आज ? जिंदगी मतलब है, मकसद है और इसीलिए परेशां भी है जिंदगी साँस तो लेती है मगर सांसों से कहीं दूर खड़ी लाश सी है - अरुण  

कला-विज्ञान- तकनीक और कौशल्य

अस्तित्व कणों की प्रीतिकर प्रस्तुति को कला कहते हैं कला की बारीकियों के तर्कपूर्ण अध्ययन को विज्ञान कहते हैं और विज्ञान के व्यावहारिक उपयोग को तकनीक कहते है और इन तीनों के साथ सही सही न्याय करने को कौशल्य कहना ठीक होगा -अरुण

जिंदगी का एक मात्र धर्म

मेरा अपना अलग अस्तित्व नही, फिर भी लगने लगा मेरी अपनी अलग पहचान नही, फिर भी लगने लगी.   अपने अलग होने के इस कल्प-भाव ने, दुजा-भाव जगाया और उन दूजों से अच्छे-बुरे रिश्ते गढ़ दिये. अब इन रिश्तों का व्यवस्थापन करते रहना ही मेरी जिंदगी का एक मात्र धर्म है -अरुण  

मगर उस पार की बातें हैं

अंधेर ने ही रचा दिन अंधेरों की रातें हैं इस पार खड़ा हूँ मगर उस पार की बातें हैं -अरुण

निजता खो चुका है आदमी

निजता खो चुका है आदमी बन गया है भीड़ इक भीड़ की ही साँस पर वह   जी रहा है भीड़ सा  -अरुण

याद सबकुछ हो मगर

याद सबकुछ हो मगर इस याद से मुंह मोड ले जो है जिन्दा साँस उसमे जिंदगी को घोल ले फिर बहेगी जिंदगी बहती हुई इक नाव सी जो भी मिल जाए किनारा उससे रिश्ता जोड़ ले   - अरुण

वर्तमान का मतलब है

वर्तमान का मतलब है-   अभी यहाँ जो हैं जीवंत, साँस लेता हुआ अपनी हर साँस के साथ और इस हिसाब से न इतिहास जीवंत है और न ही भविष्य केवल जीवंत है यहाँ एक साँस अपने साथ थामे हुए एक याद, एक कल्पना इन सब के प्रति जो मर गया वह बन गया इतिहास और भविष्य - अरुण

अगर आसमान बोलना चाहे

अगर आसमान बोलना चाहे तो उसे दो टुकड़ों में बंट जाना होगा एक बोलनेवाला और दूसरा सुनानेवाला टुकड़ा एक बार टुकड़ों में बंट गया आसमान फिर कभी शांत न हो सकेगा आदमी भी शांत प्रशांत आसमान की तरह होगा शायद पर आज वह टूट चुका है और अपने भीतर कोलाहल से भर चुका है -अरुण

वक्त के साथ ....

वक्त के साथ बदलनी है तो बदले हर बात जो  गई बीत उसे कौन बदल पाए हुजूर दिन गुजरते हैं तो यूँ घाव भी भर जाते हैं फिर भी रह जाते हैं हर हाल में कुछ दाग जरूर -अरुण 

अध्यापक, विद्यार्थी और अध्यापन

अध्यापक, विद्यार्थी और अध्यापन अध्यापक जबतक विद्यार्थी के चेतना-तत्व से भर नही जाता और अध्यापक की बातें जबतक विद्यार्थी की चेतना में बिना रोकटोक डूब नही जाती अध्यापन की घटना घटती ही नही -अरुण

धर्मिकता से दूर रहकर धार्मिक बनना

जीवन की व्यापकता,गहनता और जटिलता को प्रत्यक्ष निहारे बिना रोज की छोटी बड़ी समस्याओं को निपटाने की कोशिशें अधूरी, अपर्याप्त और बहुत ही ऊपरी ऊपरी सिद्ध होती हैं पर सांसारिकता और दैनिक दुनियादारी में उलझा आदमी क्या करे? वह तो समस्या का पूर्ण समाधान पाये बिना ही समस्या को हल करने में रूचि रखता है इसी तरह प्रायः सभी लोग धर्मिकता से दूर रहकर धार्मिक बनना चाहते हैं -अरुण  

मन से परे

आदमी कितना भी बुद्धिमान और अनुभवी क्यों न हो, उसका मन अमर्याद या अपरिमित को सीधे सीधे देखने के काबिल नही है पेड के पत्ते का सौवां हिस्सा क्या पूरे पेड को देख पायेगा ? बस एक ही संभावना है कि.... आदमी मन से परे निकल जाए तो ही बात बन सकती है मन से परे जाने की बात वैज्ञानिकों को हजम नही होती हाँ जो वैज्ञानिक विषय वस्तु के बाहरी निरीक्षण के साथ साथ अपने (निरिक्षण कर्ता) को भी उसी निरीक्षण क्षेत्र में ले आने की पहल करते है उन्ही को शायद ऐसी बातें चिंतनीय लगें -अरुण

‘पहले मुर्गी कि पहले अंडा’

उपर्युक्त कूट प्रश्न पर किया गया चिंतन कुछ मनोरंजक विचार भी दे जाता है जैसे- मुर्गी सोचती होगी कि अंडा उसकी पैदाइश है और अंडा सोचता होगा मुर्गी को तो उसीने अपने भीतर से उगाया है मूल बात - कि मुर्गी और और उसके अंडे को अलग इकाई के रूप में देखने से ही यह पहेली तैयार हुई है – अपने आप में चिंतन का एक मौलिक विचार है -अरुण   

इस देह की कश्ती में

इस देह की कश्ती में, उग आया इक नाविक लगता है उसे के वह, कश्ती का खुद मालिक उसके ही इशारे पर मानो चलती कश्ती   जाने न हकीकत खुद वह देह की है मस्ती -अरुण   

अस्तित्व की नजर में मनुष्य अज्ञानी

‘ जानना ’ स्पर्श से-देख-सुन रस-गंध से और ऐसे जाने को बूझना मन-बुद्धिसे -दो अलग घटनाएँ हैं. मनुष्य छोड़ सभी प्राणी जानने से ही काम चला लेते हैं और इस कारण किसी संभ्रम या संघर्ष में नही उलझते. अकेला मनुष्य बूझने में रूचि लेता है और अपने बूझजन्य ज्ञान/जानकारी में इजाफा करता रहता है. परन्तु इस कारण वह ‘ जो जैसा है उसे वैसा ही ’ देख पाने की क्षमता से दूर हट जाता है फलतः कुछ भी जान नही पाता यानी जानने पर ठहर ही नही पाता. सिर्फ ज्ञानार्जन के माध्यम से अपने और समाज के हित में अपनी बुद्धि का उपयोग करता रहता है. समाज से उसे प्रतिष्ठा मिलती है परन्तु अस्तित्व (यदि सोचता होगा) तो ऐसे ज्ञानी व्यक्ति को ‘ अज्ञानी ’ ही मानता होगा   - अरुण   

भीड़ में सुधार व्यक्ति की समस्या का हल नही है

वास्तविकता में सागर का सारा जल एक का एक है. सारी लहरें भी उसी जल की ऊपरी सतह हैं और प्रत्येक लहर भी उन लहरों से भिन्न नही, परन्तु अगर हरेक लहर अपने भीतर, मनुष्य की ही तरह, अहंकार का भ्रम जगा ले तो फिर सागर एक गहरे संभ्रम और अराजकता के आधीन चला जाएगा. भले ही लहर सागर हो, परन्तु लहरों के आपसी संबंधो के योग से सागर का जन्म नही होगा ...... ऊपर के उदहारण के आधार पर हम कह सकते हैं कि हरेक व्यक्ति सकल सृष्टि ही है परन्तु अहंकार के भ्रमवश वह अपने को भिन्न समझता है. अहंकार के कारण ही इन व्यक्तियों के बीच एक व्यावहारिक/भ्रम-जन्य संबंध तैयार होता है. इन्ही आपसी संबंधों के योग से समाज नामक भीड़ बनती है, वास्तविकता में भीड़ होती ही नही, फिर भी भीड़ को बदलने या उसमें सुधार लाने की बातें की जाती रही हैं. इस बात को समझे बिना कि भीड़ में सुधार व्यक्ति की समस्या का हल नही है, समाज को बदलने की कोशिशें जारी है. -अरुण

अंतर जागरूकता और चेतना का

जागरूकता मस्तिष्क का गुण है और चेतना मन का, जागरूकता कुछ भी जानती नही सिर्फ जागती है चेतना पूरे मन को नही बल्कि   मन के किसी चुने अंश को   जानने का काम करती है चुंकि चेतना मन का अंश है मन को देख नही पाती जागरूकता सकल या कुल को देख लेती है जिसतरह खुली आँखे राह चलते आदमी को गड्ढे में गिरने से बचाती हैं उसी तरह जागरूकता मन को भ्रम और अज्ञान के गड्ढे में गिरने से बचाती है   -अरुण

दर्शन ही निवारण है

समाज हमें अच्छी अच्छी बातें सिखाता है आतंरिक दुश्मनों, जैसे काम क्रोध इत्यदि से, लड़ना सिखाता है, परन्तु अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा क्यों कहते हैं इस बारे में वह मौन है और इसी तरह लड़ने से पहले अपने तथाकथित दुश्मन को कैसे साफ साफ देख लिया जाए, यह नही सिखाता और इसीकारण सभी नीतिपालकों की जिंदगी एक अजीब से संभ्रम में बीतती है दुश्मन का स्पष्ट दर्शन ही, बिना किसी संघर्ष, दुश्मन का निवारण है -अरुण    

भय मौत का नही

भय मौत का नही जिंदगी गवानें का है अज्ञेय का नही,जो जाना उसे खोने का है ज्ञात को खोने की सहजता हासिल करना ही अपनी जिन्दा सांसो के साथ मौत को देख लेने के बराबर है -अरुण