लफ्जों की आपसी गुफ्तगूँ

सारा इतिहास लफ्जों की शक्ल में ढल जाता है

लफ्जों की आपसी गुफ्तगूँ, आदमी में जेहन उभर आता है

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क्षण क्षण के अनुभव-कणों से

स्मृति ढलती है

स्मृति के इन कणों के पास

आपस में ही संवाद करने का कुदरती इल्म है

इसी सतत के संवाद में आदमी उलझा हुआ है

..................................................... अरुण

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