The Joy of Living Together - अध्याय १ (भाग ३)

क्रमशः ..... हमारा अस्तित्व कैसा है?
बच्चों कों घर और स्कूल में, माँ-बाप और शिक्षक, दोनों ही, कुछ बनने और नाम धन पद हासिल कर समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करने की होड़ में लगा देतें हैं। कोई कहेंगे कि इसमें गलत क्या है? अपने जीवन यापन के लिये कुछ कमाने या पाने की इच्छा तो स्वाभाविक ही है, इसमें गलत कुछ भी नही। परन्तु जब अपना महत्त्व बढ़ाने और दूसरे पर सत्ता ज़माने का ख्याल प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में भीतर घर कर रहा हो, तब समझ लीजिए कि गलती घट गई।
जरूरत और लालच इन दोनों में जो अंतर है वही अंतर जीवन यापन के लिए कुछ करने और कुछ बनने के लिये कुछ करने में है। अपने 'होने' (Being) कों समझते हुए जीना और इसे बिना समझे कुछ 'बनने' (Becoming) के लिये जीना गुणात्मक रूप में दो बिलकुल ही भिन्न बातें हैं। जीवन, हम क्या हैं - इसे कहते हैं, हमारे पास क्या है - इससे जीवन का मूल स्वभाव निर्धारित नही होता।
शिक्षा प्रणाली ऊपर लिखे आशय के समाधान के लिये हो, व्यर्थ क़ी होड़, आपसी संघर्ष, निराशा और हताशा जगाने के लिए नही। जो स्वयं के प्रति जागा होगा वही अपने 'होने' (Being) में स्थिर रहकर सामान्य जीवन जीने के लिए सक्षम है। जो कुछ 'बनने' (Becoming) में जुट गया वह अपने स्थान से भटक गया। हमारी शिक्षा ऐसी हो जो हमें आत्म-ज्ञान दे यानी भीतर के प्रकाश में ही अन्दर-बाहर क़ी दिशाएं दिखलाये। संग्रह, शक्ति-संचय और प्रदर्शन क़ी इच्छा ही आपसी संघर्ष, अशांति, कलह, हिंसा और अराजकता का बीज है। यह इच्छा तभी जागती है जब स्वयं के प्रति अज्ञान हो। हमारी शिक्षा प्रणाली आत्म ज्ञान क़ी प्रेरणा देने वाला हो तो फिर ऐसी समस्याएं हल हो सकती हैं।
क्रमशः आगे अध्याय १ (भाग ४)

Comments

Popular posts from this blog

मै तो तनहा ही रहा ...

यूँ ही बाँहों में सम्हालो के