The Joy of Living Together – प्राकथन (दुसरा व अंतिम भाग)

जानेमाने साधु-संतो के बोध-वचनों से चुने गये प्रत्ययकारी प्रमाणों को संकलित कर उन्हें इस पुस्तक में पेश किया गया है। अष्टावक्र, संत पोल, लाउत्से, जीसस क्राइस्ट, अब्राहम, गौतम बुद्ध एवं जे कृष्णमूर्ति जैसे महान संतो एवं बुद्धों के अनुभव-वचन उद्धृत किये गये हैं। उनके आधार पर यथार्थ, प्रति-यथार्थ एवं परम-यथार्थ जैसी संकल्पनाओं पर प्रकाश डाला गया है। चर्चा में उठ्ठे मुद्दों को समझाने के क्रम में वैज्ञानिक-शोधों, क्वांटम-भौतिकी एवं तकनीकी उपलब्धियों का भी जिक्र किया गया है।

इस पुस्तक में, इस बात की चर्चा की गई है कि किस तरह जागृत-ज्ञान (Total Awareness) यथार्थ, प्रतियथार्थ एवं परमयथार्थ के भिन्नत्व की समझ रखता है। किस तरह वह चिन्हों, संकेतों, प्रतिमाओं एवं संकल्पनाओ की सार्थकता एवं निरर्थकता, दोनों को संज्ञान में लाते हुए अस्तित्वजन्य और मनुष्य-निर्मित के मिलाप को नीर-क्षीर विवेक से देखता है।

अंत में सारी चर्चा इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि जीवंत-विवेक (Total awareness) ही असत्य को असत्य के तौर पर समझ सकने में सक्षम होने के कारण तथाकथित पवित्र-ग्रंथों एवं मनुष्य-निर्मित धर्मों की असारता को तथा संकीर्ण राष्ट्रीय, जातीय, भाषाई एवं विचारधारा पर आधारित पहचान के मिथ्यापन को समझते हुए उसके बंधन से मनुष्य को मुक्त रख सकता है। जिस व्यक्ति ने कुछ बनने (becoming) के प्रयोजन को छोड़ केवल अपने होने (being) पर ही अपनी समझ बनाए रखी वही परमयथार्थ को जान सका और जो इस तरह से मुक्त हुआ वही आदमी, बिना मार्ग-क्रमण किये एवं बिना कोई समय व्यतीत किये, अचानक ही अहिंसा, करुणा, ज्ञान एवं विद्या (wisdom) को प्राप्त हो जाता है।

............................................................................ अरुण

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