अस्तित्व कल्पना से अछूता है

अस्तित्व है एक का एक

टुकड़ा टुकड़ा, व्यक्ति, व्यक्ति,

इस तरह का भिन्नत्व है ही नही

चित्त ने चेतना को जाने बिना ही

चेतना का उपयोग कल्पना रचने में किया

इस कल्पना के सहारे ही

कल्पना करने वाले की कल्पना की

और फिर यह कल्पित कल्पना

कल्पनाएँ करने लगीं

अस्तित्व कल्पना की उड़ानों से,

उछल कूद और दौड से

बिलकुल अछूता है

ठीक उसी तरह जिस तरह

आजतक आकाश ने धरती को

कभी छुवा ही नही

......................................... अरुण

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