मन भी शरीर निर्मित

बाहरी काया यानी

भौगोलिक और सामाजिक पर्यावरण के

संपर्क में आकर जिसतरह शरीर

मल मूत्र पसीना खून और ऐसी ही

कितनी रासायनिक पदार्थों की निर्मिति करता है

वैसे ही मन की निर्मिति भी शरीर द्वारा ही होती है

अन्तर इतना ही की मन को निर्मित-मन ही महसूस करता है

कोई दूसरा बाहरी शरीर नही

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शरीर की और पर्यावरण की

पल पल की जागरूकता को जिस तरह मल मूत्र जैसी

बातें केवल एक पदार्थ मात्र जान पड़ती हैं

मेरा मल या मेरा मूत्र जैसा तादात्म वहाँ गहराता नही

ठीक इसी तरह ऐसी जागरूकता

मन को भी एक निर्मित पदार्थ मात्र ही समझ सकती है

बिना किसी तादात्म के

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बस, इतनी गहरी जागरूकता जागनी होगी

............................................................... अरुण

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