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Showing posts from May, 2010

द्वार ढूँढती रहती है .....

सत्य की खोज निराली है यह सदा जारी है, बस जारी ही है किसी दिवार से टकरा भी जाए तो भी थमती नही द्वार ढूँढती रहती है , रास्ते ढूँढती रहती है , दिवार पर लिखे निष्कर्षों को पढ़कर लौटती नही न ही दिवार पर नये निष्कर्ष लिखते बैठती है जिन्हें निष्कर्षों की जल्दी है वे पंडित बन कर रह जातें है रास्ते ढूँढना छोड़कर रास्ते बतलाना शुरू कर देते हैं ..................................... अरुण

अहंकार का तमस

जलती मोमबत्ती पकड़कर चलो चारो ओर होगा प्रकाश और ठीक हाँथ के नीचें होगा अंधकार ठीक इसीतरह अहंकार कितना ही सजग क्यों न हो कितना ही ध्यान क्यों न फैलाये उसके केंद्र में होगा उसका अपना तमस अहंकार का एक भी तमस बिंदु जबतक बाकी हो सारा प्रकाश अज्ञानमय ही है भले ही उसे प्रतिष्ठा क्यों न प्राप्त हो ........................................... अरुण

दो मुक्तक

याद याद बीते की याद आते की जिंदगी कैसे कटी ये तो मुझे याद नही ......... अँधेरा खुद जला ...... दिये की रोशनी से सब अँधेरे को भगाते हैं अँधेरा खुद जला और मिट गया देखा किसी ने ? ...................... अरुण

घड़े का खालीपन

'मै' पन पानी बनकर घड़े में भरा हुआ है पूरा का पूरा और अब वह जानना चाहता है कैसा होता है घड़े का ख़ालीपन घड़े का ख़ालीपन तो जीवित ही है केवल 'मै' पन को रिक्त होना होगा ........................ अरुण

स्मृति की आँखे अंधी

रास्तों को ढूँढने में स्मृति काम आती है पर कदमों तले उभरनेवाली पगडंडियों को वह देख नही पाती उसपर से गुजर तो जाती है पर उसे बिना देखे, उसके प्रति सोये हुए ................................ अरुण

परमात्मा ही परमात्मा को जाने

परमात्मा स्वयं को अनुभूत कर रहा है प्रति पल प्रति स्थल इस सत्य को जानने के लिये परमात्मा ही बन जाना होगा इसका मतलब की अपनी व्यक्तिगत पहचान को भुलाना होगा इस ऐसी पहचान की निरर्थकता को पहचानना होगा ................................ अरुण

क्षण ही जीवन

मनुष्य 'समय' पर यात्रा करता है जब की परमात्मा का 'समय' पर है निवास मनुष्य का जीवन क्षण क्षण की कड़ी को जोड़कर बनता है परमात्मा हर उस कड़ी को एक सम्पूर्ण जीवन के तौर पर जी रहा है मनुष्य का जीवन 'समय' का जुडाव है और 'समय' है परमात्मा का पड़ाव ..................... अरुण

पुनर्जन्म

पानी में बुलबुले हैं - कहीं एक टूटा तो कहीं एक उभरा एक आया तो एक लौटा आते और जाते बुलबुलों के बीच क्या कोई रिश्ता है ? परन्तु बुद्धि उन में रिश्ता देख लेती है बुद्धि कहती है जो गया वही तो आया जो आया, वह लौटने के बाद ही तो आया पुनर्जन्म की कल्पना क्या इससे अलग है ? आते जाते बुलबुले, पानी की बस अभिव्यक्ति है पानी से वे अलग नही हैं इतना ही ध्यान आ जाए तो काफी है ................................................... अरुण

पाँच खिड़की वाला एक घर

शरीर पाँच खिड़की वाला एक घर है इन्ही खिडकियों से दुनिया अन्दर प्रवेश करती है बुद्धि से गुजरती है और इसीलिए संकेतों में ही समझी जाती है, स्मृति में संगृहीत हो विचारों में अभिव्यक्त होती है अव्यक्त से अभिव्यक्ति तक की यह यात्रा अगर ध्यान प्रकाश में घटे तो क्या ही अच्छा हो ! अभी तो यह यात्रा अपने में ही प्रकाश में लिप्त है अभी तो वह ध्यान विमुख है ...................................... अरुण

वेदना धरती की

अगर परछाईयाँ नोचने लगें, खरोचने लगें धरती को तो धरती त्रस्त होगी, कराहती होगी, बेचैन होगी ठीक उसी तरह जिस तरह यह मस्तिष्क तनाव ग्रस्त है, चिंतित है, व्यस्त है, व्यग्र है, विवंचित है, परेशान है - विचारों, स्मृतियों, सपनों, चिंताओं और ऐसी ही कई अंतर्छायाओं द्वारा सतत नोचें जाने के कारण ................................... अरुण

धर्म और धर्म की परंपरा

धर्म आएंगे, धर्म जाएंगे, पीछे छोड़ एक लाश परंपरा की जिस लाश की पूजा में रत हैं/ रहेंगी पीढीयाँ सदियों तक ......................... अरुण

ओशो और कृष्णमूर्ति

ओशो काव्य में गणित समझातें हैं और कृष्णमूर्ति गणित में काव्य गणित प्रेमी ओशो को नकारते हैं और काव्य प्रेमी कृष्णमूर्ति को जिन्हें काव्य और गणित का नाता समझ आ जाता है वे ओशो में कृष्णमूर्ति को देखतें हैं और कृष्णमूर्ति में ओशो को ........................................ अरुण

उपज मस्तिष्क की

बीज से वृक्ष फला केवल वृक्ष पत्ते नही, फूल नही, फल नही, टहनियां नही, न शाखाएं और न जड़ें कुछ भी नही बस वृक्ष और कुछ फला है तो वह हमारे मस्तिष्क में मन में, ज्ञान या शब्द कोष में स्मृति में, भाषा में, उच्चार में, संवाद एवं परिसंवाद में, शास्त्र में, खंडन और मंडन में, विश्लेषण या संश्लेषण में अगर कुछ और फला है तो वह फला है भीतर की यंत्रवत प्रक्रिया में बीज से तो बस वृक्ष फला बाकी सब उपज है हमारे मस्तिष्क की बीज में तो बस वृक्ष ...... बीज ही वृक्ष, वृक्ष ही था बीज ....... मस्तिष्क ने ही अनेक अलग अलग नाम रचे, वृक्ष को देखकर उसमें भिन्न भिन्न वस्तुओं या अंगो का अस्तित्व इजाद किया अस्तित्व में पत्ते भी अपने को वृक्ष ही समझते होंगे टहनियों ने अपने को अलग न जाना होगा ................................................................ अरुण

अँधेरे में ही प्रकाश

अपने भीतर दबे अँधेरे को देखना होगा तभी दिख पड़ेगा घना प्रकाश सारी कोशिश लगानी है अँधेरा देखने के लिये प्रकाश तो दिखेगा बिना कोशिश अनायास क्योंकि अस्तित्व तो प्रकाशमय ही है देखने में हुई भूल का परिणाम है ये अँधेरा ..................... अरुण

क्रांति - बरगद बना गुलाब

बरगद का विराट वृक्ष अपने विस्तार को समझ रहा है हवा के टकराव से उभरते आन्दोलनों को देख रहा है पत्ते पत्ते को देखता परखता अपनी ही शाखाओं और टहनियों से गुजरता लौट जाता है अपने ही बीज में जहाँ से चला था तो अचानक क्रांति घटी - बीज टूटा तिनके तिनके बिखर गये और इसी बिखराव में उभर आया एक नया बीज गुलाब का अब वह फले न फले बढे न बढे फूल खिलाये न खिलाये सुगंध फैलाये न फैलाये फिर भी अब है वह गुलाब शुद्ध गुलाब ................................... अरुण

अहंकार नही मिटता अहंकार से

अहंकार को स्वयं से लगाव इतना मछली को पानी से जितना स्वयं को मिटाना स्वयं को गलाना मुश्किल है सपने में भी सोच पाना अहंकार कहता है - मै जल जाऊंगा पर अपनी ही राख को सजोकर फिर उभर आऊंगा स्वयं के मायातल पर मै मिट नही सकता मुझे मिटाने की कोई भी चेष्टा व्यर्थ है ............................................ अरुण

भ्रम की चक्की

गीता बाइबल या कुरान जैसे सभी अध्यात्मिक ग्रन्थ समझने वालों के लिये हैं, समझाने वालों के लिये नही जबतक भीतर समझ की संभावना नही फलती इन ग्रंथों की कोई उपयोगिता नही भ्रम की चक्की में कुछ भी डालो असार ही बाहर आएगा समझ की चक्की में भ्रम भी डालो तो भी सार ही हासिल होगा ...................................... अरुण

दर्शन भगवान का

(कुछ दिन के अन्तराल के बाद) कहते हैं कि पतिव्रता अपने पति में परमेश्वर देखती है पति चरित्रवान हो या चरित्रहीन उसी तरह जिसे हर चीज में भगवान दिखा उसे चीज के भौतिक, सामजिक या वस्तुगत मूल्य से उसे कोई सरोकार नही क्योंकि उसकी दृष्टि उनसब बातों के परे देखने लगाती है .............................. ......... अरुण