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Showing posts from April, 2010

मन की तरंग

परिक्षा मन की जो वस्तु आग के संपर्क में हो उसीकी ज्वलनशीलता या तापधारकता को पहचाना जा सकता है ठीक इसीतरह समाज संपर्क में रहकर ही हम जान सकते हैं कि हम धार्मिक हैं कि प्रापंचिक 'पानी' में डूबा क्या जाने कि वह ज्वलनशील (प्रापंचिक) है या नही भ्रमवश वह स्वयं को धार्मिक हुआ समझ सकता है ............................................................ अरुण

मन की तरंग

अन्दर की आँखें बाहरी आँखें खुलते ही देखती हैं यहाँ से वहाँ मुझसे तुझ को इधर से उधर नीचे से ऊपर अन्दर की आँखें देख लेती हैं अचानक सबकुछ एक ही दृष्टि में एक ही पल में ....................................................... अरुण

मन की तरंग

रिश्ता - अभौतिक समस्या और उसके समाधान के बीच अभौतिक समस्या और उसके समाधान या उपाय के बीच कोई भी अंतर नही न समय का और न ही अवकाश का समय गवांकर उपाय जान भी लिया जाए तो कोई उपयोग नही क्योंकि समय के बीतते समस्या भी अपना रूप बदल देती है समस्या की घनीभूत समझ ही उसका समाधान है ........................................................................ अरुण

मन की तरंग

अखंड दृष्टि बनाम विश्लेषण किसी भी वस्तु, दृश्य या फेनोमेनों को आदमी की या तो बुद्धि देखे या उसकी समग्र दृष्टि वह उसे टुकड़ों में बाँट कर देखे या पूर्ण की पूर्ण टुकड़ों में बाँट कर और फिर उन टुकड़ों के ज्ञान को जोड़कर देखने से पूर्ण को नही जाना जा सकता पूर्ण को तभी समझा जा सकता है जब समग्र दृष्टि से समग्र को ही देखा जाए टुकड़ों में देखना या विश्लेषण बुद्धि की जरूरत है, जो अध्यात्मिक समझ के मार्ग में एक बड़ी अड़चन है विश्लेषण अंधे का बौद्धिक आचरण है जो उसे वैज्ञानिक तथ्यों से मिलवाता है जब कि अखंड दर्शन बुद्ध का परमज्ञान है जो उसे सत्य में मिला देता है ................................................... अरुण

मन की तरंग

शोषण दोषी कौन -शोषक या शोषित ? दोनों ही की अपनी अपनी मजबूरीयाँ हैं शोषित शिकार है अपनी भौतिक या/तथा मानसिक कमजोरी का शोषक मजबूर है शोषण करने की अपनी स्वाभाविक प्रवृति के कारण शोषित अभाव से पीड़ित है तो शोषक दुर्भाव से दोनों ही आँखें मूंदे हुए हैं , अजग्रित हैं होश में जीने वाला न तो शोषण करेगा और न ही किसी शोषण को सहने को राजी होगा शोषक या शोषित की वकालत करनेवाले प्राणियों के बारें में क्या कहें ? वे तो समाज में अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखतें हुए अपना उल्लू सीधा करते हैं उनकी तो बात ही कुछ निराली है वे भी शोषक हैं, शोषक एवं शोषित, दोनों ही के .............................. .......................... अरुण

मन की तरंग

एक गज़ल बचपन से पाप पुण्य की घुट्टी पिलाई जाती अपने ही दिल में बंदा गुनहगार बन गया इच्छाएं कुदरती को दबाने की नसीहत सारी बुराइयों का तलबगार बन गया हर आदमी में दहशत भगवान की भरी मजहब का हर सिपाही निगह्गार बन गया किस्से कहानियों पे रख्खो कहे भरोसा सच्चाई का जो दुश्मन, असरदार बन गया कोई न मोहमाया भटका सके उसे लम्हे की हर अदा का ख़बरदार बन गया .............................. .......................... अरुण

मन की तरंग

जो अधधरी सो अधछूटी जो चीज पकड़ी ही न गई हो वह छूटेगी कैसे? इसी तरह जो चीज पूरी तरह से पकड़ी न गई हो या अधूरी पकड़ी गई हो उसे पूरी तरह से छोड़ने का सवाल ही नही बात आदतों क़ी हो रही है जो चीजे पूरी समझ से नही क़ी जाती वह आदत बन चिपक जाती हैं , अपनी बेहोशी में ( अध्यान अवस्था में ) बार बार क़ी गई कृति या विचार देह-मन क़ी आदत बन जाती है आदत क़ी आंखोमें ध्यान गड़ाकर देखने वाला ही उसकी बाध्यता से छुटकारा पा सकता है .................................................. अरुण

मन की तरंग

भीतर शब्दों क़ी बस्ती शब्दों का काम है भीतर आना और अर्थ सुझाकर लौट जाना परन्तु वे अर्थ देकर लौटते नही दिमाग में अर्थ को समेटकर बैठ जाते हैं अर्थ को विचरने के लिये जगह ही नही छोड़ते धीरे धीरे इतनी घनी बन जाती है शब्दों की बस्ती कि समझ को साँस लेने भर क़ी जगह नही छूटती - समझ या तो पैदा ही नही होती या पैदा भी हो तो शब्दों के अतिक्रमण के कारण घुंटकर मर जाती है ...................................................................... अरुण

मन की तरंग

जमीं परछाईयाँ बुद्ध उभरतें हैं, ठहरतें हैं, चलें जातें हैं उनकी परछाईयों को जमा देतें हैं उनके अपने और उन्ही जमी परछाईयों को समझ लेते हैं धर्म अपना .................. अक्षरभरा चित्त कोरे कागज पर लिखा जानेवाला हरेक अक्षर कागज के कोरेपन को भ्रष्ट करता है परन्तु कागज और अक्षर के बीच के खालीपन को जो देखने की कला जानता हैं वह स्वयं कोरा है, निर्मल है, निर्मन है ................................................... अरुण

मन की तरंग

आवाज के भीतर ख़ामोशी का एहसास इस आवाजभरी जिंदगी में आवाज छुपा रखती है एक ख़ामोशी भीतर जिसने आवाज सुनी- ठीक ठीक उसे ख़ामोशी भी दिखी - ठीक ठीक परन्तु ख़ामोशी के केवल सपने देखने वाले न तो आवाज सुनतें हैं - ठीक ठीक और न ही ख़ामोशी को देख पातें हैं - ठीक ठीक ........................................................... अरुण

मन की तरंग

'मेरा मेरा' ही तो चिंता की असली जड़ दूर कहीं आग दिखी ज्वालायें धधक रहीं इस अजीब दृश्य से साक्षी था आकर्षित और तभी कानों में स्वर गूंजा ... दृश्य नही घर तेरा, तेरा घर जल रहा बस तभी - दृश्य का चेहरा ही बदल गया दौड़ पड़ा वह साक्षी चिंता से विकल हुआ खुद से ही पूछ रहा कैसे बच पाए घर मेरा घर, मेरा घर 'मेरा मेरा' ही तो चिंता की असली जड़ ................................................. अरुण

मन की तरंग

परिस्थिति और आदमी ऐसा कहा जाता है कि परिस्थिति बदलती है आदमी को और आदमी परिस्थिति को -- सवाल यह है कि क्या परिस्थिति और आदमी के बीच कोई भिन्नत्व है भी ? आदमी परिस्थिति का परिचय है ............................................... अरुण

मन क़ी तरंग

सच्चाई सच्चाई तो सच्चाई है अलग आदमी, समुदाय या धर्म के लिए अलग कैसे हो सकती है ? हिन्दू की कोई और... क्रिश्चन की कोई और, नही! - ये कोई कहानी नही कि हरेक जुबां पे बदलती जाए उसके आज और कल में फर्क आए अलग अलग जगह पे अलग अलग सुनी जाए ये सच्चाई है अनाम, अनिजी, बिना किसी व्यक्तित्व या भिन्नत्व के जीने वाली यहाँ जैसी है वैसी ही वहाँ इसके बाबत जैसी है वैसी ही उसके बाबत ये सच्चाई अगर सब ने देख ली होती तो शायद दुनिया में अलग अलग धर्म न होते, मान्यताएं न होती आदमी झूठ का गुलाम न होता वह अपनी साँस विश्वास के बल पर नही तो एहसास के साथ लेता अस्तित्व ही अस्तित्व को समझ सकता है कोई आस्तिकता या नास्तिकता नही .............................................................. अरुण

मन की तरंग

भीड़ हूँ मै ...... भीड़ हूँ मै, जानता हूँ -भीड़ होना खो चुका पूरी तरह से खुद का होना बन चुकी है खुद की मेरी ऐसी सूरत जो हो रिश्तों का हो पेचीदा सा जाला जिसने अपनी असली काया को छुपाया भय दबाया अपने भीतर गिर न जाऊं अब कहीं मै भीड़ की गहरी पकड़ से भीड़ के इतिहास से, अनुराग से, अनुबंध से .............................. ............................ अरुण

मन की तरंग

अहम् ब्रह्मास्मि पीपल का यह एक वृक्ष हवा के झोंकों के साथ डोलती हैं शाखाएँ और पत्ते इसके हर पत्ते से ध्वनि निकलती है मै हूँ पीपल - मै हूँ पीपल हर शाखा गूंजकर कह रही है मै हूँ पीपल - मै हूँ पीपल परन्तु- मै - ब्रह्मा वृक्ष का एक पत्ता कभी न कह पाया मै हूँ ब्रह्म - मै हूँ ब्रह्म .................................. अरुण

मन की तरंग

क्या ईश्वर है ? ईश्वर के बाबत अज्ञानियों के तीन प्रकार मौजूद हैं पहले वे जिनके भीतर गहरे में संदेह तो है पर उस संदेह को दबाते हुए 'हम ईश्वर को मानतें हैं'- ऐसा कहतें हैं दूसरे वे जो कुछ जाने बिना ही 'हम ईश्वर को नही मानते'- ऐसी घोषणा कर जिम्मेदारी से भाग लेतें हैं तीसरे वे जो ईमानदारी से स्वीकारतें है कि 'पता नही ईश्वर है भी या नही' उन ईमानदारों के जीवन में ईश्वर को जानने क़ी कुछ तो संभावना बनती है ज्ञानी वही है जिसे ईश्वर पर विश्वास नही उसका पूरा एहसास ही है ऐसा एहसासी ऐसी कोई भाषा नही जानता जिसमें ईश्वर के बाबत कोई भी संवाद किया जा सके क्योंकि सभी भाषाएँ अज्ञानियों ने रचीं हैं ......................................................................... अरुण