दो चौ-पंक्तियाँ

खूब पढ़ ली हैं किताबें खूब सुनली वाणियाँ
सादगी परिधान कर ली, की बहोत कुर्बानियां
पर नही आजाद होने की वजह बनती अभी
तिमिर- बंधन था तभी, अब रौशनी की बेड़ियाँ

पांव के नीचे धरा उसके लिये क्या दौड़
जेब में रखे हुए बाबत है कैसी होड़
धर्म सारे हैं पराये अपनी केवल जागृति
आँख बाहर भागती है उसको भीतर मोड़
......................................................... अरुण

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