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Showing posts from August, 2009

कुछ शेर

जो नही है सामने, होता बयाँ नजर को ना चाहिए कोई जुबाँ इन्सान के जेहन ने जो भी रची है दुनिया भगवान दब चुका है उसके वजन के नीचे घडे में भर गया पानी जगह कोई नही खाली कहाँ से साँस लेगा अब घडे का अपना खालीपन ............................................................................ अरुण

कुछ शेर

तमन्ना बेइख्तियार हुई बदनाम दिल हुआ बेजा की कौम की तारीफ तो बढ़ी इस्मत ख़ुद की जरा सी की तो मिली रुसवाई है इल्म कि नापाक इरादे फिरभी जी सकता हूँ दुनिया के बदस्तूर ...................................................... अरुण

कुछ शेर

सोचने को भी न बच पाए समय ऐसे संकट में निकल आती है राह किसी भी चीज जगह का नही है नाम सच दिखना के असल क्या है, सच हुआ ख्यालात उभरते हैं, बनते हुए इक शीशा शीशे में उभरता 'मै', ख्यालात चलाता है .............................................................. अरुण

दो दोहे

समाज और परिवार द्वारा संस्कारित मन कभी भी आजाद नही है पहले मिर्ची खाय दे सो फिर जले जुबान मीठा तीता सामने चुन मेरे मेहमान मन को साधन बना कर जो जी पाए वह आनंदित है जो मन में उलझ गया वह त्रस्त है चढ़ चक्के पर होत है दुनिया भर की सैर जो चक्के में खो गया उसकी ना कुई खैर .................................................................. अरुण

कुछ शेर

पेड़ गर चाहे नया होना कभी हो न सके बीज बदले तो सारा रूप रंग ही बदले मै न जानू 'उसे' पर मैंने 'उसे' मान लिया मै न जानू - कहने में डर सा लगता है वैसे नही जुदा कुदरत से कोई बंदा एहसास खो गया है इसबात का मगर ....................................................... अरुण

कुछ शेर

कुई छोटा बड़ा कोई, हकीकत है भुलाएँ क्यों दिलों से दिल मिलें हों तो बराबर के सभी रिश्ते जेहन में हो अगर झगडा किसी भी दो खयालों का मुसल्लम जिन्दगी जीना नही मुमकिन किसी को भी हिफाजत के लिए जो बीच खीची हैं लकीरें सरहदें हैं, डराती आदमी को आदमी से .................................................... अरुण

कुछ शेर

सुकून मिल न सके ख्याले सुकूं के आते शोर को पूरी तरह देखे वही पाता सुकून चलती गाड़ी का ही हो चाक बदलना जैसे जीते जी ख़ुद की मौत देख पाना बामुश्किल होश को जो भी दिखे, सच है वही पुस्तकों में जो लिखा, सब झूठ है ........................................................ अरुण

असीम से ससीम

पैदा होते धरती पर आया तब मै असीम था न था मेरा कोई नाम, पता और परिचय सारी जमीन, सारा सागर, सारा आसमान मेरा अपना था पर आज ... एक छोटे से नाम और परिचय का मै मुहताज हूँ ........................ अरुण

होश बेहोश

रिक्त आया था, रिक्त जाऊंगा रिक्त हूँ हर क्षण मगर 'बेहोश' हूँ 'होश में हूँ'- जानना काफी नही अपनी 'बेहोशी' का दिखना होश है 'बेहोश' = सांसारिकता के प्रकाश में निद्रस्थ .................................................................. अरुण

दस्तूर

आँखों को फोड़ने का दस्तूर रखके कायम बंदिश को तोड़ने की बातें चला रहे हैं आधी मुहब्बत का पूरा पूरा दस्तूर दुनिया तो चल रही है सम्भलते गिरते जंगे आजादी है जिन्दा दुनिया में सिलसिलाए दस्तूर चल पड़ा जबसे ............................................ अरुण

कुछ शेर

असलियत गौर से हट जाए भरम जाए पसर गौर की वापसी तक, बन्दा बन्दा है पागल तुलने ओ तौलने की मिली जो तालीम न किसी बात का भी असली वजन जाना है रिश्तों के आइनों में, बनते बिगड़ते रूप यारों से दुश्मनी हो दुश्मन से दोस्ती ................................................... अरुण

कुछ शेर

पिंजडे की मुहब्बत में उलझा हुआ ये पंछी पूछे की उडूं कैसे आजाद मिजाजी से है बदनसीब इंसा का जहन जानने से पहले ही जानता कुछ कुछ जिंदगी में दो और दो चार नही समझे जो हकीकत लाचार नही ....................................................... अरुण

कुछ शेर

निकलते आँख से आंसू कभी तेरे कभी मेरे अलहिदा है नही ये गम के तेरा हो के मेरा हो प्यार में अपने पराये का नही कोई हिसाब ऐसा मंजर है कि जिसमें कोई बटवारा नही हर कुई मजबूर लेकर जिन्दगी की दास्ताँ कुछ ही करते आप अपने दास्ताँ की जुस्तजू ..................................................... अरुण

दो शेर

कुदरत जो फैलती फिर इन्सान क्यों नही छोटे से नजरिये का छोटा सा आसमान ख़ुद जो बन गया रौशनी अपनी रास्तों ओ कोशिशों की न वजह उसको ........................................................... अरुण

कुछ शेर

इस पल में जिन्दगी या इस पल में मौत है खामोश आसमां या तूफान ऐ जहन अच्छाई ओ बुराई दोनो जुदा जुदा रिश्ता न बीच में जो काम आये अपनी जगह पे ठहरा वो तो अज़ाद है खिसका इधर उधर जो वो तो बंधा बंधा (इधर = अतीत, उधर= भविष्य ) .................................................. अरुण

दो शेर

सदियाँ गुजर चुकी हैं कुछ भी अलग नही अब भी वही जहन है जिद्दोजहद लिये फैली खुदाई बाहर भीतर वही खुदाई कुछ भी जुदा नही है 'मै' के सिवा यहाँ ........................................................... अरुण

दुनियादारी

सामाजिक परिवेश में जन्म पाने के कुछ दिनों के बाद - सर्व प्रथम - भेद का भाव जिससे उभरे स्व एवं पर का भाव परिणामतः जन्मे भय भाव और सुरक्षा की इच्छा यही है सुखेच्छा, दुःख का प्रपंच लिए दुःख से निकलने की तड़प ही उलझाती है नए दुःख में इसी दुष्ट चक्र को कहते हैं - संसार या दुनियादारी ............................. अरुण

अनुभव की लालसा

हरेक क्षण अपने आप में पूर्ण है अनुभव की लालसा उसके पूर्णत्व को भंग कर देती है। विचारों से विचार नही मिटते विचारों से विचारजन्य समस्याएँ नही सुलझती कागज पर पेन्सिल से रेखाएं बन तो सकती हैं पर उन रेखाओं को पेन्सिल से मिटाया नही जा सकता। .............................................................................. अरुण

समतल वर्तमान पर भूत भविष्य का भ्रम

कागज पर रेखाओं और शेडिंग द्वारा ऊँची नीची घाटियाँ रेखांकित की जाती हैं। कागज का धरातल समतल होते हुए भी उसपर ऊंचाई एवं गहराई जैसे आयामों का भ्रम पैदा कर दिया जाता है। अस्तित्व में केवल वर्त्तमान ही है, परन्तु मस्तिष्क में, स्मृति रेखाओं के सहारे भूत एवं भविष्य काल का भ्रम निर्मित होता है। इसतरह, समय या काल का काल्पनिक आयाम वास्तव जान पड़ता है। वर्तमान में ही अतीत एवं भविष्य का स्पर्श है। ............................................................................................................................. अरुण

कल आज और कल

ना मुरादी में यादे कल तमन्ना में कल का कल आज है इक रास्ता गुजरे है कल से कल .......................... अरुण

आज का दोहा ...

जीते जी मै खो गया दुनियादारी खींच। एक गुफा फैली रही, जनम मरण के बीच।। जनम के साथ ही साथ नींद (गुफा) की प्रक्रिया शुरू हो गई। पृथ्वी और आकाश के बीच रहते हुए भी उसकी ओर से ध्यान हटने लगा। प्रकृति से हटकर संस्कृति द्वारा ढलने लगे। समाज नाम का एक रोग संक्रमित हुआ। सामाजिक संवाद की भाषा मिली। तरीका मिला समाज में रहने का। रिश्ते बने अपने पराये के। प्रेम करना सीखा अपनो के साथ व बैर पालना सीखा परायों के विरूद्व। संगठन के नाम पर अलगाव सीखा। जो वैश्विक है उसे देश-परदेश, घर-द्वार, जात-परजात में बांटना सीखा। परम-प्राण के टुकडे हुए और इन टुकडों के सहारे जीना सीखा। परम शान्ति भंग हुई और दौड़ शुरू हुई मन की शान्ति, घर की शान्ति, नगर की शान्ति, देश और विश्व-शान्ति के पीछे। जीवन टूटा और उसके टुकडों को जीवित रखने हेतु संघर्ष शुरू हुआ। जहाँ संघर्ष वहां भय, वहां चिंता। जहाँ भय वहां स्वप्न, वहां मोह सुख का तथा साथ ही आशंका दुःख की। इसतरह प्रकृति से नाता टूटा और हम भी टूटे भीतर-बाहर। नींदमयी जीवन की धार पर बहते हुए खो गए, जागृत-जीवन से कोसो दूर। .........................................................

कुछ शेर .......

'जो भी है ' देखना है खुदा कहूँ न कहूँ मर्जी अपनी जानना तो कुछ भी नही है यारों 'जानने वाले' को ही जानो, जानना क्या है? दुनिया में जितने बन्दे उतने ही होते आलम जिसमें सभी समाये खोजूं वही मै आलम ................................................................... अरुण

कुछ शेर ....

आदम से न देखी शक्ल आदमी ने अपनी अपने अक्स से काम चला लेता है चार्चाए रोशनी कुछ काम का नही दरवाजा खुला हो यही काफी है बंद आँखों में अँधेरा, खुलते ही सबेरा न फासला कुई मिटाना है .......................................................... अरुण

कुछ शेर .....

मिल जाना समंदर में लहर की इशरत 'आगे क्या?'- पूछने को कौन बचे मुक्ति की बात से तो मतलब नही अभी बंधन का बंध समझा, बस बात ये बहोत न उम्मीद कुई और न मै हारा हूँ पल पल की जिंदगी से वास्ता है मेरा .................................................................... अरुण

प्रपंच मन में है, ध्यान में नही

सिनेमा हाल में मूव्ही चल रही है। बालकनी के ऊपर कहीं एक झरोखा है जहाँ से प्रकाश का फोकस सामने के परदे पर गिरते ही चित्र चल पड़ता है, हिलती डोलती प्रतिमाओं को सजीव बना देता है। हमें इन चल- चित्रों में कोई स्टोरी दिख रही है। हम उस स्टोरी में रमें हुए हैं। परन्तु जैसे ही ध्यान, झरोखे से आते प्रकाश के फोकस पर स्थिर हुआ, सारी स्टोरी खो गई। केवल प्रकाश ही प्रकाश , न कोई स्टोरी है, न कोई चरित्र है, न घटना, न वेदना, न खुशी, कुछ भी नही। ये सारा प्रपंच परदे पर है, प्रकाश में नही। संसार रुपी इस खेल में भी, प्रपंच मन में है, ध्यान में नही। ............................................................................................................................................. अरुण